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नवा अध्ययन विनय-समाधि
(तीसरा उद्देशक) आहिताग्नि ज्यो सिखि की त्यो गुरु सेवा सजग करे नित ही।
आलोकित इगित लख गुरु मन आराधे जो पूज्य वही ॥१॥ आचारार्थ विनय शुश्रूषा करे सुगुरु वच ग्रहे सही।
यथोपदिष्ट कार्यकारी अाशातन न करे पूज्य वही ।।२।। जो रालिक पर्याय जेष्ठ-लघु का भी विनय करे ध्रुव ही।
नम्र, सत्यवादी, गुरुसेवी आज्ञाकर हो पूज्य वही ॥३॥ यापनार्थ' अज्ञात, उञ्छ समुदानिक विशुद्ध अशन ग्रही।
जो कि अलाभ-लाभ पर खेद-प्रशसा न करे पूज्य वही ॥४॥ भक्त-पान शय्याशन सस्तर देते हो अतिमात्र गृही।
फिर भी जो अल्पेच्छु तोष-रत आत्म-तुष्ट हो पूज्य वही॥५। धन आशा से नर सह लेता लोह-बाण सोत्साह सही।
हो निरपेक्ष सहे वाणी के काटो को जो पूज्य वही ॥६॥ शल्य अयोमय स्वल्प काल पीड़क हैं और सुउद्धर हैं।
(पर) कटु वच कटक दुर्धर वैर बढाते महा भयकर हैं ।।७।। दौर्मनस्य करता दुर्वचनो का आघात कर्णगत ही।
वीराऽग्रणी, जितेन्द्रिय धर्म मानकर सहता पूज्य वही ।।८।। पीछे निन्दा करे न सम्मुख प्रत्यनीक वच कहे नही।
निश्चय या अप्रियकारी भाषा न कहे जो पूज्य वही ।।६।। अकुहक' और अलोलुप निच्छल अपिशुन अदीनवृत्ति कही।
आत्म-प्रशसा करे न करवाए अकुतूहल पूज्य वही ॥१०॥
१ ओ जीवन-यापन के लिये अपना परिचय न दे। २. इन्द्रपाल आदि के चमत्कार प्रदर्शित नहीं करनेवाला ।