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दशवकालिक
प्रेम न करे इष्ट विषयों मे कभी भी संतवर।
परिणमन उन पुद्गलों का अशाश्वत पहचान कर ॥५॥ यथावत् परिणमन उन सब पुद्गलों का जानकर ।
लालसा से मुक्त शान्तात्मा यहाँ विचरे प्रवर ।।५।। जिस सुश्रद्धा से तजा घर ली अनुत्तर साधना।
__ करे गुरु-सम्मत गुणों की यथावत् अाराधना ॥६०॥ नित तप-संयम-योगयुक्त स्वाध्याय रक्त जो स्थिरतम है। ।
बल' से घिरा सशस्त्र सुभट ज्यों वह निज-पर रक्षा-क्षम है ।।६१॥ सत्स्वाध्याय-ध्यान-तप-रत, निष्पाप भाव, वायी का नित।
पूजित मल होता नष्ट, स्वर्ण-मल-ज्यो शिखि से तापित ॥६२।। जो यो दु.ख-सहिष्णु, जितेन्द्रिय, श्रुतरत, अमम, अकिंचन है।
वह निरभ्र विधु सम शोभित होता अपगत-दुष्कृत-घन है ॥६३॥
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सेना।