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दशवकालिक
(स्थाम', बल, श्रद्धा तथा आरोग्य अपना देखकर ।
- लगाए तप मे स्वय को क्षेत्र, सुसमय जानकर)
जरा न पीडित करे जहाँ तक व्याधि न जब तक बढ़े सुजान।
क्षीण न इन्द्रियगण हो तब तक करे धर्म माचरण महान् ॥३५।। *पापवर्धक क्रोध मान व लोभ माया है महा।
आत्म-हित इच्छुक तजे इन चार दोषो को यहाँ ॥३६।। प्रीति-नाशक क्रोध है अभिमान यह विनयघ्न है।
मित्रता-नाशक कपट है लोभ सर्व-गुणघ्न है ॥३७।। क्रोध को जीते शमन से मान मृदुता-पोष से।
सरलता से दम्भ जीते लोभ को संतोष से ॥३८॥ क्रिोध मानवश किए नही फिर कपट-लोभ बढ़ते रहते।
चारों कृष्ण' कषाय, पुनर्भव तरु की जड़ सिचन करते ॥३९।। रालिक-जन' का विनय करे, ध्रुव शील कभी छोड़े न यमी।
गुप्तेन्द्रिय हो कूर्म भाति तप संयम में हो पराक्रमी ।।४०।। *न दे आदर नीद को अति अट्टहास्य करे नही ।
तजे मैथुन की कथा स्वाध्याय-रत हो नित्य ही ॥४१॥ हो परायण श्रमणता मे योग सयोजित करे।
जो श्रमणता-रत रहे वह अनुत्तर सुख को वरे ॥४२॥ भक्ति बहुश्रुत की सुगतिदा इह परत्रहितावहा ।
तथा पृच्छा करे जिससे अर्थ-निर्णय है कहा ॥४३॥
जितेन्द्रिय आलीन, निज पग-हाथ-तन संकोच कर।
पास बैठे सुगुरु के होकर सुगुप्त श्रमण प्रवर ॥४४।। सुगुरु के आगे व पीछे बराबर बैठे नही।
ऊरु से ऊरु को सटा उनके निकट बैठे नही ॥४५॥
१. शारीरिक बम । २ संक्लिष्ट । ३. छठे साधु । ४ नमति दूर न अति निकट ।