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म.
आचार-प्रणिधि
अशन-गृद्ध न हो, मुखर भी उंछ भोजन ले सही।
क्रीत अभिहृत व उद्दिष्ट सचित्त को भोगे नही ।।२३।। करे अणु-भर भी न संचय मुधा-जीवी जो दमी।
असंबद्ध व जन पदाऽश्रित, रहे सतत सयमी ॥२४॥ सुसतुष्ट व रूक्ष-वृत्तिक, अल्पभुग अल्पेच्छु है।
'. जिन वचन सुन किसी पर भी क्रुद्ध न बने भिक्षु है ॥२५॥ कर्ण-सुखकर शब्द सुनकर प्रेम भाव करे नही।
__ स्पर्श दारुण तथा कर्कश सहे काया से सही ॥२६॥ विषम-शय्या क्षुत्, तृषा, शीतोष्ण, अरित व भय कहे। .
देह दुख महा फलद है, अव्यथित बन सब सहे ॥२७॥ सूर्य छिपने पर पुन. जब तक न वह होता उदय ।
अशन आदिक सभी मन से भी न इच्छे गुण-निलय ।।२८॥ अल्प-भाषी, मिताशन, अचपल न अविवादी शमी।
- उदर-दान्त बने न निन्दे स्वल्प मिलने पर यमी ॥२६॥ अन्य का अपमान न करे आत्म-श्लाघा भी नही।
जाति या श्रुत-लाभ-तप-मति पर न गर्व करे सही॥३०॥ दोष-सेवन जान या अनजान मे करके अरे।
शीघ्र सकोचे स्वय को और न पुन आचरे ॥३१॥ अससक्त व शुचि सरल-आशय जितेन्द्रिय मुनि कही।
दोष सेवन कर उसे गोपे, नकारे भी नही ॥३२॥ महात्मा-प्राचार्य के वच को अमोघ' सदा करे।
वचन से करके ग्रहण फिर कार्य सपादन करे ॥ ३॥ सिद्धि-पथ का ज्ञानकर जीवन अशाश्वत जानकर ।
भोग से विनिवृत्त हो, स्वायुष्य परिमित मानकर ॥३४॥
१ ज्ञात-अज्ञात कुल से पोडा-पोहा लेने की वृत्ति। २ अलोलुप। ३ सफल ।