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आठवाँ अध्ययन आचार - प्रणिधि
प्रणिधि पा, आचार की जो भिक्षु का कर्त्तव्य है ।
कहूँगा क्रमशः तुम्हे अब सुनो तुम वह श्रव्य है ॥ १ ॥ भूमि, जल, शिखि, सबीजक तृणतरु, पवन, त्रस प्राण है ।
ये सभी हैं जीव ऐसा वीर का फरमान है ||२|| श्रहिंसक व्यवहार होना चाहिए उनके प्रति ।
मन वचन तन से सदा संयत तभी होता यति ॥ ३ ॥
भीत, भू ढेले शिला को कुरेदे भेदे नही ।
त्रिविध करण व योग से, सयत समाहित जन कही ||४||
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शुद्ध' - पृथ्वी स-रज' आसन पर कभी बैठे नही ।
ले अनुज्ञा, पूँज बैठे हो अचित्त जहाँ सही ||५|| शीत - जल, प्रोले व हिम बारिश-सलिल सेवे नही ।
तप्त - प्रासुक - उष्ण पानी ही ग्रहे सयत सही ॥ ६ ॥ उदक- श्रार्द्र - शरीर को निज, नहीं मलता पोछता ।
तथाभूत उसे समझकर नही मुनिवर स्पर्शता ॥७॥ अग्नि या अंगार, ज्वाला, ज्वलित काष्ठादिक सही ।
करे उत्सेचन' व घट्टन और निवोपन नही ||८|| तालवृन्त व पंत्र-शाखा व्यजन आदिक से मुनि ।
हवा न करे स्वतन पर या बाह्य पुद्गल पर गुणी ॥६॥ वक्ष, तृण, फल, मूल श्रादिक किसी को छेदे नही ।
विविध बीज, सचित्त को मन से कभी इच्छे नही ॥ १० ॥
१ सचित भूमि । २ सचित्त रज सहित आसन । ३ प्रदीप्त । ४ स्पर्धा । ५ बुझाना |