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दशवकालिक बैठ, पा, कर, सो, ठहर, जा, असंयत जन को तथा ।
धीर प्रज्ञावान सयत यो न बोले सर्वथा ॥४७॥ हैं असाधक बहुत पर वे साधु हैं कहला रहे।
असाधक को साधु न कहे साधु को साधक कहे ।।४।। ज्ञान-दर्शन युक्त सयम-तपोरत सतत रहे।
इन गुणों से युक्त जो मुनि उसे ही सयत कहे ॥४६॥ देव-नर-पशु-पक्षियो मे रण परस्पर हो कही। ,
अमुक को जय हो अमुक की हार यो बोले नहीं ॥५०॥ वायु, वर्षा, शीत, उष्ण, सुकाल, क्षेम व सुख तथा ।
कदा होंगे या न हो ऐसे न बोले सर्वथा ॥५१॥ उसी भाँति नभ, मेघ, मनुज को देव देववच कहे नही।
वर्षोन्मुख, उन्नत, पयोद या वृष्ट-बलाहक कहे सही ॥५२॥ *अन्तरिक्ष कहे उसे गुह्यानुवरित कहे व्रती।
देखकर सपन्न नर को ऋद्धिमान कहे यती ।।५।। जो पापानुमोदिनी, अवधारिणी व पर उपधात करे। ___ क्रोध, लोभ, भय और हास्यवश भी ऐसी न गिरा उचरे ॥५४॥ वचन-शुद्धि का कर विवेक जो दूषित-वाणी तज देता।
नित निर्दोष विचारित कहता वह सुजनो मे यश लेता ॥५५।। भाषा के गुण-दोष जान नित दूषित-गिरा तजे मुनिवर।
षट् काया-प्रतिपाल, चरित-रत बोले मधुर और हितकर ॥५६॥ विचार भाषी, समाहितेन्द्रिय, विगतकषाय, तटस्थ तथा
पूर्वाजित-मलहर, लोक-द्वय का वह आराधन करता ॥५७॥