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हरित वध करता हुआ, करता तदाऽऽश्रित वध सही ।
दशवेकालिक
क्योकि दृश्य-अदृश्य त्रस - स्थावर विविध रहते वहीं ॥ ४१ ॥
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कुगति - वर्धक दोष इसको जानकर मुनिवर प्रतः ।
उम्र भर तक, वनस्पति-आरम्भ को छोड़े स्वत. ॥ ४२ ॥
काय मन वच से नही सकाय की हिंसा करे ।
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त्रिविध करण व योगत्रिक संयत-समाहित संचरे ॥ ४३ ॥ त्रस हनन करता हुआ, करता तदाऽऽश्रित वध सही ।
क्योकि दृश्य-अदृश्य त्रस - स्थावर विविध रहते वही ॥ ४४ ॥ कुगति-वर्धक दोष इसको जानकर मुनिवर अतः ।
तजे सब सकाय का आरम्भ जीवन-भर स्वत. ॥४५ ॥ प्रशन आदि पदार्थ चारो जो अकल्प्य यहाँ कहे ।
उन्हे तजता हुआ मुनि चारित्र को सम्यग् वहे ॥ ४६ ॥ पिण्ड शय्या वस्त्र और अमत्र संयत सर्वदा ।
अकल्पिक इच्छे नही कल्पिक ग्रहण करता मुदा ॥४७॥ क्रीत औद्देशिक तथा नित्याय आहृत ले यहाँ ।
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- प्राणि-वध अनुमोदते वे यो महाऋषि ने कहा ||४८ ॥ कोतकृत उद्दिष्ट अभिहृत अशन-पानी को अत ।
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धर्मजीवी, स्थितात्मा, निर्ग्रन्थ तजते हैं स्वत ||४६ || ( युग्म ) कांस्य पात्र व कास्य में या कूड मोदो मे कृती
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अन्न-जल भोगे अगर तो चरित भ्रष्ट बने व्रती ॥५०॥ शीतजल आरम्भ फिर धोवन बिखरता है कही ।
प्राणि-वध होता अत देखता असयम है वही ॥ ५१ ॥ पूर्व-पश्चात् कर्म हो तो नही कल्प्य वहाँ कहा ।
इसलिए गृहि पात्र मे खाए नही मुनिवर महा ॥५२॥ मंच आसदी, पलंग, सिंहासनो पर जानिए |
बैठना, सोना विवर्जित, आर्यवर मुनि के लिए ॥ ५३ ॥ विना देखे पीढ़ ग्रासदी निषद्या मंच पर । न बैठे जो वुद्ध आज्ञा-अधिष्ठित हैं सतवर ॥ ५४ ॥ जीव दुष्प्रतिलेख्य हैं गम्भीर
छिद्रो मे वहाँ । इसलिए पल्यक प्रासदी विवर्जित हैं यहाँ ॥ ५५ ॥