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दशवकालिक लोक मे सब साधुओ ने झूठ को गहित कहा।
प्राणियो को हो यप्रत्यय अतः झूठ तजे यहीं ॥१२॥ सचेतन अथवा अचेतन स्वल्प अथवा बहुत है।
अयाचित जो दन्त-शोधन मात्र अन्याधिकृत है ।।१३।। उसे ग्रहण करे न खुद पर से न करवाए सही ।
ग्रहण करते हुए को सयत भला समझे नही ।।१४।। युग्म घृणित-घोर-प्रमाद-घर अब्रह्मचर्य कहा अरे।।
लोक मे भेदाऽयतन-वर्जक मुमुक्षु न पाचरे ।।१५।। अधर्मो का मूल है यह महादोपाऽगार है ।
अत. छोडे मिथुन का संसर्ग जो अनगार है ।।१६।। विड़ व सागर-लवण, गुड, घृत तेल प्रादिक का सही।
ज्ञात-नन्दनवचन मे रत, चाहते संग्रह नही ।।१७।। लोभ का सस्पर्ग माना है सभी ने यह सही।
स्वल्प भी यदि साहेच्छक तो न मुनि वह, है गृही ॥१८॥ जो कि वस्त्र, अमत्र, कम्बल, पाद-प्रोछन वस्तुएँ ।
धारते उपभोगते चारित्र-लज्जा के लिए ॥१६॥ उसे त्रायी ज्ञात-सुत ने परिग्रह, न कभी कहा।
_कहा मूर्छा है परिग्रह, यों महा ऋषि ने अहा ।।२०।। बुद्ध' भी सर्वत्र रक्षा-हित उपधि रखते अरे ।
और क्या ? निज देह पर भी वे ममत्व नही करे ॥२१॥ नित्य तप मुनि के लिए सव ही प्रबुद्धो ने कहा।
वृत्ति सयम-योग्य है जो एक भक्त अगन अहा ॥२२॥ सूक्ष्म प्राणी त्रस व स्थावर दीखते निशि मे नही ।
श्रमण विधि-युत तदा कैसे वहां चल सकता सही ॥२३॥ सवीजक व जलार्द्र भोजन प्राणियों से पथ भरे।
वचाए दिन मे, तदा कैसे निशा मे संचरे ॥२४॥ देख करके दोष ऐसे ज्ञात-नन्दन ने कहा ।
रात्रि-भोजन नही करते सर्वथा मुनिवर महा ॥२५॥
पहा ।
१ तीर्थकर, प्रत्येकबुद्ध जिनकम्पिक मुनि ।