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अ० ६ : महाचार-कथा
गौचरी-गत जो श्रमण अन्तर-घरो मे बैठता ।
उसे लगते दोष ये मिथ्यात्व भी है पनपता ॥ ५६ ॥ - नाश होता ब्रह्म का बिन समय जीवो का हनन ।
वनीपक- प्रतिघात होता, हो प्रकुपित गृहस्थ जन ॥५७॥ हो प्ररक्षित ब्रह्म, स्त्री से भी सशंक बने अपर ।
स्थान जो कि कुशील वर्धक दूर से छोडे प्रवर || ५८ || तीन मे से अन्यतर को बैठना कल्पे वहाँ ।
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जरा से अभिभूत रोगी तपस्वी जो है यहाँ ॥ ५६ ॥ रुग्ण या नोरोग मुनि - यदि स्नान करना चाहता ।
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क्रान्त': हो आचार, सयम व्यक्त हो उसका तथा ॥ ६० ॥ सूक्ष्म-प्राणी, फटी. पाली भूमि मे रहते भरे ।
- विकट - जल से स्नान करता भी उन्हे प्लावित करे ॥ ६१ ॥ अत. शीत व उष्ण जल से नहाते न मुनि - प्रवर ।
घोर इस अस्नान व्रत को पालते है उम्र भर ||६२||
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गध-चूर्ण व कल्क, लोध्र व पद्म- केशर आदि हो ।
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गात्र- मर्दन के लिए सुयत प्रयोग करे नही || ६३ ||
केश-नख जिसके प्रवर्धित और मुण्डित नग्न हो ।
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तजकर साधुता ॥६५॥
शान्त-मैथुन को प्रयोजन क्या विभूषा से कहो ॥ ६४ ॥ विभूषावर्ती व्रती वह कर्म चिकने बाँधता । घोर दुस्तर भवोदधि मे पड़े विभूषा र चित्त को भी बुद्ध तादृश मानते । दयामय ( त्रायिजन) सेते नही अति पापकारी जानते ॥ ६६ ॥ मोहदर्शी, ऋजुगुण-सयम-तप-रत, निज तन कृश करते ।
पूर्व - पाप को हरते और न नए पाप वे है करते ||६७ ||
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नित' उपशान्त यशस्वी श्रमम अकिंचन आत्मिक- विद्यावान । त्रायो, विमल - शरद - शशिसम, पाता शिव अथवा देव विमान ॥ ६८ ॥
१. उत्सघन (२) बचित्त पानी ।