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०४:पजीवनिका त्रिविध-त्रिविध मनोवचन तन से न करता उम्र-भर । .
'. नही करवाता व अनुमोदन न करता आर्यवर ॥१॥ पूर्वकृत का प्रतिक्रमण निन्दा व - गीं कर रहा। -- --
- आत्म का व्युत्सर्ग कर भगवन् सतत अघ हर-रहा ॥२॥ साधु-साध्वी गण सुसंयत विरत प्रतिहत-अघ सदा। ,
और प्रत्याख्यात-पापाचरण रहता सर्वदा ॥८॥ दिवस में, निशि मे, . अकेला और परिषद मे कदा। , - नीद में, सोया- हुआ या जागता रहता यदा ॥४॥ चमर व्यजन व तालवृन्तक पत्र अथवा खंड से । . वृक्ष-शाखा, प्रशाखा या मोर-पिच्छी, पख से ॥८॥ वस्त्र वस्त्रांचल तथा निज हाथ या मुख से अरे।
बाह्य पुद्गल या स्वतन को - फूंक दे न हवा करे ॥६६॥ और ये सब अन्य जन से भी न करवाये कभी।
तथा अनुमोदन तजे यह कह रहे गुणिजन सभी ॥८॥ त्रिविध-त्रिविध मनोवचन तन से न करता' उम्र-भर।
नही करवाता व अनुमोदन न करता आर्यवर |८८k पूर्वकृत'' का प्रतिक्रमण निन्दा - गीं - कर रहा ।
आत्म का व्युत्सर्ग कर भगवन् ! सतत अघ.हर रहा ||८६ur साधु-साध्वी, गण सुसंयत विरत प्रतिहत-अघ सदा ।
और . प्रत्याख्यात-पापाचरण रहता सर्वदा ॥१०॥ दिवस मे, निशि मे, अकेला और परिषद् मे कदा।
नीद मे सोया हुआ या जागता रहता यदा ॥११॥ बोज अंकुर हरित जातक छिन्न-शाखादिक यथा.।
और इन सब पर प्रतिष्ठित वस्तुओं पर भी तथा ॥६२।। घुण व अंडे सहित लक्कड़ पर न ठहरे आर्यवर ।
तथा बैठे चले सोये भी नही संयत प्रवर ॥६॥ ___ और ये सब अन्य जन से भी न करवाये कभी।
तथा अनुमोदन तजे यो कह रहे गुणिजन सभी ॥१४॥