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पांचवां अध्ययन पिण्डषणा (प्रथम उद्देशक)
*असंभ्रान्त तथा अमूर्छित साधु भिक्षा-काल मे ।
भक्त, पान गवेषता इस भाँति विश्व विशाल मे ॥१॥ गोचरी-गत ग्राम-नगरो मे श्रमण धीमे चले।
अनुद्विग्न प्रशान्तचेता · दूर पापो से टले ॥२॥ सामने युग-मात्र भू को देख निज पग को धरे।
बीज प्राणी हरित उदक व मृत्तिका वर्जितं करे ॥३॥ गर्त अथवा स्थाणु हो पथ विषम या पकिल धरा ।
इन्हें संक्रम' से न लाँघे, अगर पथ हो दूसरा ॥४॥ क्योंकि गिरने या फिसलने का सदा भय है जहाँ ।
घात संभव त्रस व स्थावर प्राणभूतो की वहाँ ॥५॥ "इसलिए संयत समाहित मुनि न उस पथ मे चले।
यत्न' से जाए अगर पथ दूसरा न उसे मिले ।।६। जहाँ गोबर, राख, तुष या कोयलो का ढेर हो। .....
., . उन्हे सयत नही लाँघे रज सहित यदि पैर हों ॥७॥ पड़े वर्षा धुहर. आए चले आँधी जोर से।. .
जीव उड पड़ते अगर हो, गमन न करे ठौर से ॥८॥ - शील-रक्षक न जाए वेश्या-निवेशो के निकट ।
. ब्रह्मचारी दान्त को भी हो विस्रोतसिका विकट ॥६॥ वहाँ बारम्बार, जाने से-- सतत संसर्ग हो। .
व्रत-निपीड़ित हो तथा श्रामण्य मे सदेह हो ॥१०॥
१. पल या गड्ढे को पार करने के लिए काष्ठ-या पाषाण रचित पुल ।