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दशवकालिक
अतः दुर्गति-दोष-वर्धक जान करके दान्त हैं।
तजे वेश्या-सन्निवेश, शिवेच्छु जो एकान्त हैं ॥११॥ श्वान या नव-प्रसूता गौ, दृप्त हय-गज-बैल को।
दूर से ही तजे मुनि रण, कलह औ शिशु-खेल को ॥१२॥ हो नही उन्नत व अवनत हृष्ट औ आकुल कदा।
यथाविधि इन्द्रिय-दमन करता हुआ विचरे सदा ॥१३॥ दौड़ता, हँसता तथा फिर बोलता न चले मुनि ।
जब कि उच्चावच कुलो में गोचरी जाए गुणी ॥१४॥ न देखे चलते समय आलोक थिग्गल' द्वार को।
संधि, जल-गृह को तजे, सदेह के आधार को ॥१५॥ नृप, गृहस्थी, कोतवालो की जगह जो गुप्त हो।
दूर से ही तजे जो स्थल क्लेश से सयुक्त हों ॥१६॥. तजे गर्हित कुल तथा गृहपति जहाँ वर्जित करे।
छोड़ अप्रीतिकर कुल, प्रीतिकर कुल मे संचरे ॥१७॥ पिहित-सण-प्रावार से, गृह को स्वयं खोले नही।
उघाड़े न कपाट को, जब तक कि प्राज्ञा ले नही ॥१८॥ गौचरी-गत मुनि, नही मल-मूत्र बाधा धारता।
देख प्रासुक भूमि आज्ञा ले, तुरंत निवारता ॥१९॥ निम्न-द्वारिका तमोमय कोष्ठक तजे मुनि सतत ही।
चक्षु विषय न हो वहाँ प्रतिलेखना दुर्लभ कही ॥२०॥ बीज पुष्पादिक घने जिस कोष्ठ में बिखरे पड़े।
तथा अधुना-लिप्त, गीला, देख पैर नही घरे ॥२१॥ भेड़, बालक, श्वान, बछडादिक खड़े जिस द्वार पर ।
' हो प्रविष्ट न साधु उसमें हटाकर या लांघकर ॥२२॥ न देखे आसक्त बन, अति दूर तक देखे नही।
' लौट आए मौन होकर स्फार-नयन न हो कही ॥२३॥
१. घर का बहार, जो किसी कारणवश फिर से बिना हमा हैं।
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