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अ० ५ : पिण्डेपणा (प्र० उ०) गौचरी-गत साधु मर्यादित धारा लाँधे नहीं।
जानकर कुल-भूमि फिर मित-भूमि पर जाए सही ॥२४॥ विचक्षण भू-भाग की करता वहाँ प्रतिलेखना।
स्नान, शौचालय तरफ मुनि को नही है देखन। ॥२५॥ उदक-मिट्टी-स्थान' बीज व हरित युत भू छोडकर।
सर्व-इन्द्रिय समाहित फिर वहाँ ठहरे सन्तवर ॥२६॥ वहाँ स्थित मुनि को अगर दे पान-भोजन भवतजन ।
अकल्पिक इच्छे नही कल्पिक ग्रहे नित सन्तजन ॥२७॥ कदाचित् नीचे गिराती अशन यदि हो दे रही।
कहे देती हुई से-मैं इसे ले सकता नही ॥२८॥ बीज प्राणी हरित को वह कुचलती यदि दे अशन ।
असयम करती उसे लख तजे उसको सन्तजन ॥२६॥ वस्तु जो कि सचित्त-संहृत-क्षिप्त-स्सशित' जानिए।
उस तरह पानी हिलाकर अगर श्रमणो के लिए ॥३०॥ सलिल-अवगाहन, चलित कर पान-भोजन दे रही।
कहे देती हुई से~मैं इसे ले सकता नही ॥३१॥ पूर्व धोए हाथ चम्मच बर्तनो से दे रही।।
कहे देती हुई से--मैं इसे ले सकता नही ॥३२॥ इसी भाँति जल-भीगे स्निग्ध स-रज मृत् खार तथा हरिताल।
हिंगुल व मैनशिल या अजन लवण व गैरिक से उस काल ॥३३॥ पीत धवल मिट्टी सौराष्ट्रिक, पिष्ट, पत्र-रस या तुष से।
अससृष्ट संसृष्ट करादिक को पहिचानो इस विधि से ॥३४॥ *विन भरे कर-पात्र-दर्वी से दिया जाए जहाँ।
न इच्छे, सभावना पश्चात्-दोषो की वहाँ ॥३५॥ लिप्त बर्तन-हाथ-दर्वी से दिया जाता कही।
ग्रहण करता सर्वथा निर्दोष हो तो मुनि वही ॥३६॥
१ कच्चे पानी का स्थान और सचित्त मिट्टी वाला स्थान । २ सचित्त-सहृत, सचित्त-क्षिप्त, सचित-स्पशित । ३. गोपी चन्दन-एक प्रकार की मिट्टी।