________________
अ० ५ : पिण्डषणा (द्वि० उ०) गहि-सदन में प्रचुर खाद्य व स्वाद्य नाना विध-जहाँ।
दे न दे इच्छा गृही की, कुपित हो न कृती वहाँ ॥२७॥ शयन, प्रासन, पान-भोजन, वस्त्र सम्मुख हो धरे।
पर न देता हो गृही तो मुनि न कोप कभी करे ॥२८॥ स्त्री, पुरुप, शिशु, वृद्ध को करता हुआ स्तवना यति।
न याचे, अप्राप्ति पर कटु वचन न कहे सुव्रती ।।२६।। अवदित कोपे नही, वदित न दप्त बने कदा।
__वृत्ति यो अन्वेषता, रहती वहां मुनिता सदा ॥३०॥ प्राप्त भोजन को अकेला लोभवश हो गोपता।
देखने पर गुरु कदाचित ले न ले यो सोचता ॥३१॥ लुब्ध उदरंभरी करता बहुत पाप यहाँ सही।
हो सदा दुस्तोष्य वह फिर मोक्ष मे जाता नहीं ॥३२॥ अकेला भिक्षार्थ-गत मुनि विविध भोजन प्राप्त कर ।
सरस खाकर बीच मे, ले विरस आता स्थान पर ॥३३॥ ये श्रमण समझे मुझे मुनि तुष्ट, मोक्षार्थी यही।
, रूक्ष-वृत्तिक, भोगता संतोष से नित प्राप्त ही ॥३४॥ सुयश, पूजा, मान ..या सम्मान-कामी जो बना।
सतत मायाशल्य करता, पाप मे रहता सना ॥३५॥ 'भिक्षु निज चारित्र-रक्षक, प्रात्म-साक्षी से सही।
सुरा, मेरक आदि मादक रस कभी पीए नही ॥३६॥ न कोई जानता मुझको, विजन मे पीता कही।
चोर मुनि के कपट दोषो को सुनो मुझसे यही ॥३७।। बढे माया, मृषा, अयश व अनिर्वाण व मत्तता।
उसी भिक्षुक की अहर्निश बढे सतत असाधुता ॥३८॥ चोर ज्यो व्याकुल रहे नित स्वकर्मों से दुर्मति ।
मरण तक सवर नही आराध पाता वह यति ॥३६॥ वह नही प्राचार्य को मुनिवृन्द को आरावता।
गृही निन्दा करे उन दुर्गुणो का पाकर पता ॥४०॥ धारता यो अवगुणो को सद्गुणो को त्यागता ।
नही संवर-धर्म वह मरणान्त तक आराधता ॥४१॥