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द्वितीय अध्ययन की टिप्पणी
गाथा - 4 ..... न सा महं, नो वि अहं वि तीसे.....
पर पदार्थों से मोह हटाने का प्रमुख उपाय है बाहरी वस्तुओं को अपने से अलग जान लिया जाए। यह विवेकबुद्धि ही राग घटाने का सबल, समीचीन एवं समर्थ उपाय है। जब भी किसी साधक का मन संयम से चलायमान हुआ, इस सम्यक् विचार से ही उसने अपनी आत्मा को पुनः संयम में स्थिर किया है।
चूर्णि में एक उदाहरण मिलता हैह्रएक वणिक् पुत्र दीक्षित होकर यह घोषणा कर रहा था कि-"यह मेरी नहीं, मैं भी उसका नहीं हूँ।" किन्तु एकदा प्रबल मोह के उदय से उसके मन में राग जगा, वह कहने लगा-“वह मेरी है और मैं भी उसका हूँ।” राग जागते ही वह वस्त्र-पात्र लेकर अपने गाँव पहुँचा । मार्ग में पत्नी मिल गई, पर वह उसे पहचान नहीं सका। अत: उसने उससे पूछाह्न "अमुक की पत्नी मर चुकी है या जीवित है ?” साधु के मनोभावों को समझकर दोनों के हित की भावना से स्त्री बोलीह्न“महाराज ! वह तो दूसरों के साथ चली गई।" यह सुनकर साधु सोचने लगा “मुझे जो पाठ सिखलाया गया था, वह ठीक था । वह मेरी नहीं और मैं भी उसका नहीं।" इस प्रकार के विचार से उसका मन संयम-भाव में स्थिर हो गया। सम्यक् चिन्तन-विचार से राग का विष मन से निकल गया।
__जब अरिहन्त अरिष्टनेमि बाड़े में पशुओं को देखकर, विरक्त हो रेवताचल पर्वत की ओर बढ़े और दीक्षित हो गये, तब पीछे से उनके छोटे भाई रथनेमि भी दीक्षित हो गये । राजीमती नेमनाथ की प्रव्रज्या की बात सुनकर बड़ी उदास हुई
और समय पाकर अनेक राजकुमारियों के साथ वह भी दीक्षित हो गई और अरिष्टनेमि को वन्दन करने को गिरिराज की ओर चल पड़ी। रेवताचल की ओर जाती हुई सब साध्वियाँ मार्ग में वर्षा हो जाने से भीग गई। वर्षा से बचने के लिये सब साध्वियाँ इधर-उधर हो गईं। राजीमती को भी पास में एक गुफा मिल गई। वह उस गुफा में आई और उसने अपने गीले कपड़े बदन से उतार कर फैलाए। उधर मुनि रथनेमि पहले से ही वहाँ ध्यानस्थ थे। थोड़ी देर में बिजली चमकी । बिजली की चमक में उन्होंने वस्त्र रहित राजीमती को देखा और विचलित हो गये।
राजीमती भी एकान्त में मुनि को देखकर भयभीत हुई और अपनी बाहों से अपने अंगों का संवरण करके बैठ गई। रथनेमि को विचलित देखकर उसने कहा-“मैं भोजराज की पुत्री हूँ और तुम अंधकवृष्णि के पुत्र हो, अत: कुल में गंधन कुल के साँप की भाँति मत बनो।" इनका संवाद उत्तराध्ययन सूत्र के 22वें अध्ययन में पठनीय है। यहाँ केवल मुनि की अस्थिरता मिटाने सम्बन्धी गाथाएँ बतलाई गई हैं । दशवैकालिक के अध्ययन 2 की गाथा संख्या 6, 7, 8, 9, 10 एवं 11 को उत्तराध्ययन के अध्ययन 22 की गाथा संख्या 42, 43, 44, 46 एवं 49 से मिलाइये । दशवैकालिक सूत्र के दूसरे अध्ययन की गाथा 6 को उत्तराध्ययन सूत्र में प्रक्षिप्त माना गया है। गाथा 6 (......... कुले जाया अगंधणे)
सर्प के मुख्य दो कुल होते हैं-(1) अगंधन और (2) गंधन ।