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[दशवैकालिक सूत्र अन्वयार्थ-अहं च = मैं तो। भोगरायस्स = भोजराज उग्रसेन की पुत्री हूँ। तं च = और तुम । अन्धगवण्हिणो = अन्धकवृष्णि समुद्रविजय के पुत्र । असि = हो । कुले = अपने कुल में । गन्धणा = गन्धनजाति के सर्प के समान । मा होमो = मत बनो । संजमं = संयम का। निहुओ = स्थिर-एकाग्र मन से । चर = आचरण करो, पालन करो।
__ भावार्थ-कुलाभिमान को जागृत करते हुए सती राजमती बोलती है-“रथनेमिजी! मैं भोजराज उग्रसेन की पुत्री हूँ, और तुम महाराज समुद्र विजय के पुत्र हो, ऐसे उच्च कुल में जन्म पाकर, हम गन्धनकुल के नाग की तरह नहीं बनें, किन्तु मैं और तुम एकाग्रमन से संयम-धर्म का आचरण कर, अपने कुल का गौरव बढ़ावें।
जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ।
वाया-विद्धोव्व हडो, अट्ठि-अप्पा भविस्ससि ।।७।। हिन्दी पद्यानुवाद
यदि देख रम्य नारी तन को, तुम अपनाओगे मनोविकार।
पवन-प्रचालित हड तरु सम,होगा तेरा चंचल व्यवहार ।। अन्वयार्थ-जइ तं = यदि तूं । भावं = चंचल भाव। काहिसि = करेगा तो । जा जा = जिनजिन । नारिओ = नारियों को । दिच्छसि = देखेगा, उससे । वायाविद्धो = तेज पवन से प्रेरित । हडो व्व = हड वृक्ष (पानी के वृक्ष विशेष) के समान । अट्ठिअप्पा = अस्थिर आत्मा। भविस्ससि = हो जाएगा।
भावार्थ-हे मुने ! यदि तुम जिन-जिन स्त्रियों को देखोगे और उन पर विषय भाव करोगे तो तुम वातप्रकंपित हड वृक्ष की तरह अस्थिर आत्मा वाले हो जाओगे। चंचल मन वाला साधक न घर का रहता है, न घाट का । क्योंकि चंचल मन साधना के मूल को डोलायमान कर साधक को मार्ग-च्युत कर देता है।
तीसे सो वयणं सोच्चा, संजयाए सुभासियं ।
अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ ।।10।। हिन्दी पद्यानुवाद
सुन्दर वचन सती का सुन, रथनेमि हुआ धर्म में लीन ।
ज्यों अंकुश से गज वश होता, धर्म भाव त्यों बढ़े प्रवीन ।। अन्वयार्थ-तीसे = उस । संजयाए = संयमशीला राजीमती के । सो सुभासियं = वे पतितोत्थान करने वाले सुभाषित । वयणं = वचन । सोच्चा = सुनकर । अंकुसेण = अंकुश से । जहा नागो = जैसे हाथी वश में हो जाता है, वैसे ही रथनेमि भी। धम्मे = चारित्र-धर्म में । संपडिवाइओ= पुन: स्थिर हो गये।