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[दशवैकालिक सूत्र क्या करे ? (उत्तर) सा = वह । महं= मेरी । न = नहीं और । अहं वि = मैं भी । तीसे = उसका। नो वि : नहीं हूँ । इच्चेव = इस प्रकार सोचकर । ताओ रागं = उस स्त्री पर रागभाव को । विणएज्ज ले I
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= हटा
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भावार्थ-राग-द्वेष रहित होकर शान्त व सम दृष्टि से साधना-मार्ग पर चलते हुए भी कदाचित् कभी किसी साधक का मन संयम से बाहर निकल जाय, (क्योंकि- “कर्मणो गहना गति:" के अनुसार उदित कर्म बड़े बलवान होते हैं । जप-तप की करणी करते हुए भी रथनेमि और कुण्डरीक मुनि की तरह यदि मन धर्म से बाहर हो जाय तो आत्मार्थी ऐसा सोचे कि वह मेरी नहीं और मैं भी उसका नहीं। बाह्य पदार्थों के साथ रहा हुआ ममत्वभाव ही,राग उत्पन्न करके मन को चंचल करता है । अत: सर्व प्रथम ममत्वभाव का उन्मूलन करना चाहिए । भौतिक पदार्थों से ममत्वभाव दूर करते ही राग का बन्धन ढीला हो जायगा ।
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आयावयाहि चय सोगमल्लं, कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं । छिंदाहि दोसं विणएज्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ।15।।
हिन्दी पद्यानुवाद
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कर आतापन, कोमलता तज, दे छोड़ काम दुःख होंगे दूर काटो द्वेष, राग को छोड़ो, जग में सुख होगा भरपूर ।। अन्वयार्थ - आयावयाहि धूप एवं सर्दी की आतापना ले। चय सोगमल्लं = सुकुमारप परित्याग कर । कामे = कामवासना या कामनाओं को । कमाहि = दूर कर दे। तब । दुक्खं = तेरा दुःख । कमियं खु = दूर हुआ, समझ । दोसं = द्वेष का । छिन्दाहि = छेदन कर । रागं = राग को । विणएज्ज दूर हटा। एवं = ऐसा करने से । संपराए = संपराय अर्थात् संसार में। सुही = सुखी । होहिसि = हो जाओगे ।
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भावार्थ-मोह-निवृत्ति के लिये बाह्य और अन्तरंग दोनों प्रकार के साधनों का संयुक्त प्रयोग किया जाय तो ही साधक सरलता से कामना पर विजय पा सकता है। इस दृष्टि से शास्त्रकारों ने कहा है कि शीत और ताप की आतापना लेते हुए सुकुमारता का परित्याग करो एवं कामनाओं का निवारण करो तो दुःख दूर हुआ समझो। फिर कहा कि -द्वेष का छेदन करो और राग को अलग करो, ऐसा करने से संसार में सुखी हो जाओगे ।
हिन्दी पद्यानुवाद
पक्खंदे जलियं जोइं, धूमकेउं दुरासयं । नेच्छति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे ।।6।।
धूम्रचिह्न जलती ज्योति में, समुद कूद कर करे प्रवेश । सर्प अगन्धन कुल के जन्मे, वान्त न लेते सहते क्लेश ।।