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चौतीस स्थान दर्शन
आयु की ४, नाम कर्म की ६७, गोत्र की २, और अन्तराय की ५, ये सब मिलकर १२० प्रकृतियां बंध योग्य है ।
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वेद
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(२६) उदय प्रकृतियां १२२ ज्ञानावरणकी दर्शनावरणकी नीयकी २, मोहनीयकी २८, आयुकर्म की ४, नामकर्मकी ६७ ( जो बंध प्रकृतियों में है ) गोत्रकर्मकी अन्तरायकी ५. इस प्रकार उदय योग्य प्रकृतियां १२२ है ।
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सूचना:- - जब प्रथमोपशम सम्यक्त्व हो तब मिथ्यात्व के ( १ ) मिथ्यात्व ( २ ) सम्यग्मिथ्यात्व ( ३ ) सम्यक् प्रकृति इस तरह तीन भाग हो जाते हैं । इनमें से सिर्फ मिथ्यात्वका बंध होता है शेष २ की सत्ता हो जाती है । और यह दो प्रकृतियां उदय में भी आ सकती है । इस प्रकार दर्शन मोहनीय की दो प्रकृतियां बढ़ जाने से उदय योग्य प्रकृतियां १२२ जानना ।
(२७) सत्व - प्रकृतियां १४८
ज्ञानावरणकी ५. दर्शनावरणकी ९. वेदनीकी २. मोहिनीकी २८. आयुकर्मकी ४. नामकर्मकी ९३. गोत्रकर्मको २ अन्तरायकी ५. यह सब मिलकर अर्थात् आठो कर्मों की सब मिलाकर सत्त्व प्रकृतियां १४८ है ।
( २८ ) संख्या
किस स्थान में जीव कितने है, यह बतलाना इसका प्रयोजन है। सो हरएक कोष्टक में देखो ।
(२९) क्षेत्र
जीव कितने क्षेत्र में रहते है, यह बात बतलाना है। सो हरेक कोष्टक में
क्षेत्र देखो |
(३०) स्पर्शन
समुद्घात, उपपाद आदि प्रकारों से भूत, भविष्यत्, वर्तमान में जीव कहां तक जा सकता है, यह बात स्पर्शन में बतलाना है । सो हरेक कोष्टक में देखो ।
(३१) काल
विविक्षित स्थानवाले जीव कितने काल तक लगातार उस स्थान में रहते है, यह बात काल में बतलाना है । सो हरेएक कोष्टक में देखो |
( २३ ) अन्तर
( विरहकाल) विविक्षित स्थान को छोड़कर फिर उसी स्थान में जीव आ जावे, इतने बीच में कोई विविक्षित जीव उस स्थान में न रहे उस बीच के काल को अन्तर कहते है । सो हरेएक कोष्टक में देखो ।
(३३) जाति (योनि)
८४ लाख है । उत्पत्तिस्थान को योनि या जाति कहते है । किन जीवों की कितनी जाति है, यह निम्न प्रकार जानना ।
(१) नित्यनिगोदकी
( २ ) इतरनिगोदकी
(३) पृथ्वी कायिककी
(४) जल (५) अग्नि
(६) वायु
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(७) वनस्पति (८) द्वीन्द्रियकी (९) श्रीन्द्रियको (१०) चतुरिन्द्रियको (११) तिर्यंचपंचेन्द्रियकी ( १२ ) नारककी
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७ लाख
७ लाख
७ लाख
७ लाख
७ लाख
७ लाख
१० लाख
२ लाख
२ लाख
२ लाख
४ लाख
४ लाख