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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् २४. नानासरिच्छिखरिवर्ष विराजमानो,
लक्षादियोजनमितः प्रसृतः समन्तात् । चन्द्रार्द्धकल्पमिह भारतवर्षमेतान् नित्यं बभौ समयमल्लमहाक्षवाटः॥
नाना नदियों तथा वर्षधर पर्वतों से सुशोभित इस लाख योजन लंबेचौड़े जम्बूद्वीप में कालचक्र के महान अखाड़े की भांति यह अर्द्ध चन्द्राकार भारतवर्ष सदा सुशोभित होता रहा है।
२५. पूर्वापराधिगममध्यविवर्तकेन,
वैताढयनामगिरिणा विहितं द्वयं तत् । सीमन्तकेन' ललनाललितालकानां', वारं यथा यदिह दक्षिणमुत्तरञ्च ।।
लवणं समुद्र के इस छोर से उस छोर तक पूर्व से पश्चिम की ओर फैली हुई वैताढ्यगिरि की पर्वतमालाओं ने भारत को उत्तरी भारत और दक्षिणी भारत के रूप में उसी प्रकार विभक्त कर डाला है, जैसे मांग में भरा जाने वाला सिन्दूर किसी सुन्दरी के सिर पर सुशोभित होने वाली श्यामल केशराशि को दो भागों में विभक्त कर देता है।
२६. तद्दक्षिणे विलसदार्यपवित्रभूमी,
देशो वरो मरुधरो नवकोटियुक्तः । अन्यान्यदेशिकवरा अपि यत्र तत्र, तन्नामतः परिचिता उपलक्षिता वा ।।
पवित्र आर्यभूमि से सुशोभित इस भरतक्षेत्र के दक्षिण में एक सुरम्य नवकोटि मरुधर देश है । यहां के निवासी जिस किसी देश में जाकर बसे हैं, वे वहां मारवाड़ी के नाम से प्रसिद्ध हैं और इसी नाम से पुकारे जाते हैं ।
२७. तत्रैव जोधपुरनामपुरं प्रसिद्धं,
तद्राष्ट्रकूटवरवंशजराजधानी । दृष्टव यामतिथयोऽपरनागरा ये, मृत्युञ्जया अनिमिषा मनुजा अपि स्युः ॥
१. सीमन्तकः--- मांग (केशेषु वर्त्म सीमन्तः– अभि० ३।२३५) , २. अलकः-धूंघराले केश (अलकस्तु कर्करालः-- अभि० ३।२३३)