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षष्ठः सर्गः
९९. अवधारय धारय धैर्यधुरं, प्रतिपालय पालय जैनगिरम् । सर साधय साधय साधुपदं, तर तारय तारय दीनजगत् ॥
ओ मन ! तुम धैर्य धुरा को स्वीकार करो, आप्तवाणी का पालन करो, साधुता के यथार्थ मार्ग की साधना करो, उसका प्रकाशन करो तथा स्वयं भवसागर को तैरते हुए दीन जगत् का भी उद्धार करो ।
१००. प्रतिषेधय सत्यविरोधकरानऽनुरोधय केवल के वलिनम् ।
अवहेलय लय बाह्यरसमनुशीलय शीलय शान्तरसम् ॥
तुम सत्य का विरोध करने वालों का प्रतिषेध करो। तुम केवल सर्वज्ञ की ही आराधना करो। तुम बाह्य रसों की अवहेलना करो और शान्तरस का अनुशीलन करो ।
१०१. त्यज लोकभयं त्यज गच्छभयं त्यज तीर्थभयं त्यज संघभयम् । परलोकपथे पथिके भवति, जिनधर्ममृते न हि को पि सखा ॥
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तुम लोक, गच्छ, तीर्थचतुष्टय तथा संघ - इन सबके अपवाद भय को छोडो। तुम लोकोत्तर पथ के पथिक हो। जिनेश्वरदेव द्वारा प्ररूपित धर्म के अतिरिक्त कोई भी तुम्हारा सखा नहीं है, मित्र नहीं है ।
१०२. भज पारगतं रज सिद्धशिवं व्रज सत्यपथं सृज सूत्रमतम् । इदमेव हि तारकमेकमतं गतरागततं न ततो विमतम् ॥
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आत्मन् ! तुम भगवान् की ही उपासना करो, तुम कल्याण के घटकों को रंजित करो, सत्य पथ के पथिक बनो, आगम की दृष्टि की प्ररूपणा करो । वीतराग का अभिमत ही उद्धार करने वाला है, इसलिए तुम उससे कभी विपरीत मत बनो ।
१०३. अतिलालकपालकमालिककैः, स्वजनस्वजनाभिजनीयजनैः । तनुबाधकतामवगत्य ततस्त्वरितं भवति प्रविधूतमनाः ॥
१०४. तत ऊर्ध्वतमे परमार्थकृते, त्वमपीह यदेकशिवोच्चमतिः ।
जननीं रुदतीमपहाय सुदा, कृतवान् गुरुमेतमनन्यमनाः ॥ ( युग्मम् ) 'आत्मन् ! इस विश्व में लालन-पालन करने वाले स्वामी के द्वारा तथा स्वजन और अभिभावकों द्वारा सुख-सुविधा में की जाने वाली यदि तनिक TET की भी अवगत हो जाती है तो शीघ्र ही उनसे मन उचट जाता है । पर तुमने तो विलखती हुई माता को छोड़कर उच्चस्तरीय पारमार्थिक भावना से ही आचार्य रघुनाथजी को अनन्य मानकर उनको गुरुरूप में स्वीकार किया था ।'