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अष्टमः सर्गः
१. अथान्धकारात् पथतोपसारकं, प्रकाशपुञ्जाभिमुखे प्रसारकम् । प्रपूर्य तत्सप्तमवृष्ट्यऽनेहसं, सुखेन चिक्रीड स भिक्षुरुन्नतः ॥
अथ अंधकार के पथ से हटाने वाला एवं प्रकाशपुञ्ज के अभिमुख ले जाने वाला राजनगर का सातवां चातुर्मास पूर्ण कर मुनि भिक्षु ने वहां से सुखपूर्वक विहार किया ।
२. नतोत्तमाङ्गापितहस्तयुग्मिनो, जनास्तदा सत्यधनास्त एव च । यथा हि लोकान्तसुरा जिनेश्वरं, निवेदयन्तीह तथा हि तं मुनिम् ॥
तब विहार के समय वे सत्य के धनी श्रावक नतमस्तक होते हुए एवं अपने दोनों हाथों को मस्तक पर चढाते हुए मुनि को वैसे ही विज्ञप्ति करने लगे जैसे लोकान्तिक देव जिनेश्वर देव को ।
३. यथार्थतीथं जिनपैः प्ररूपितं प्रवर्त्तनीयं भवता वताऽधुना । प्रकाश्यते नो भुवनं भयावहं, प्रकाशकेनांशुमतापि तेन किम् ॥
'हे मुने ! जैसे तीर्थंकरों ने यथार्थ धर्म की प्ररूपणा की है वैसे ही आप भी यथार्थ – सत्य धर्म की प्ररूपणा करें । उस प्रकाशमान सूर्य से भी क्या, जो अंधकार से भयावह भुवन को प्रकाशित नहीं करता ? '
४. गुरोविमोहाद् भवितासि विक्रम !, ध्रुवात् स्वलक्ष्याच्छिथिलः कदापि मा । प्रयाहि शीघ्रं विजयस्व कर्मणि, वयं प्रतीक्षाप्रसितास्तवेप्सिते ॥
'हे विक्रम ! गुरु के मोह में फंसकर आप अपने लक्ष्य से कभी भी शिथिल मत होना, इसीलिये हम विज्ञप्ति कर रहे हैं कि अब आप शीघ्र प्रयाण करें और अपने कार्य में वियज प्राप्त करें । हम आपकी इष्टसिद्धि के लिए प्रतीक्षा एवं शुभ कामनाएं करते रहेंगे ।'
५. ततः स्वनेत्रोन्मिषकोपकारिणः, प्रचारिणस्तान् सुपथस्य पूर्वतः । विशिष्टसत्प्रत्ययवाक्सुधाचयैः, प्रसाद्य सद्यो विजहार स स्वयम् ॥
तब सर्वप्रथम सत्य के प्रचारक, अपनी आंखें खोलने वाले उन उपकारी श्रावकों को मुनि भिक्षु ने विशिष्ट सद् विश्वास को उत्पन्न करने वाले अमृतमय वचनों से संतुष्ट कर शीघ्र ही वहां से विहार कर दिया ।