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अष्टमः सर्गः
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५६. प्रतीयते कारुणिको महामनाः, परोपकारैकपरायणोत्तरः। गुरुत्वसम्बन्धविशेषितं तकं, भवार्णवात्तारयितुं यतोऽग्रणी॥
ऐसा प्रतीत होता है कि महामना भिक्षु परम करुणाशील और परोपकार-परायण थे। वे गुरु से विशेष संबंधित होने के कारण उनको भवार्णव से पार लगाने के लिए अगुआ बने ।
५७. न शिष्यरूपेण वियुक्तमानसो, गुरुत्वकाङ्क्षाकलितोप्ययं नहि । . ' यदृच्छया वस्तुमनाः न केवलं, शिवेच्छुरीयेत तथोपलक्षणैः ॥
मुनि भिक्षु न शिष्यरूप में रहने से घबराते थे और न. गुरु बनने की आकांक्षा रखते थे। वे स्वतंत्र रूप से रहने के इच्छुक भी नहीं थे। वे तो केवल कल्याण की भावना से जीवनयापन करना चाहते थे। यह उनके उपरोक्त लक्षणों से ज्ञात होता है । ५८. अतो हि सौन्दर्य विचारधारया, प्रकृत्य संभोगमशेषमात्मना। समाधिमास्थाय निरन्तरान्तरं, मुदा सुवार्तासुपथः प्रतीक्ष्यते ॥
इस सुन्दर विचारधारा से वे गुरु के साथ आहार-पानी का संभोग कर समाधि में स्थिर रहने लगे और निरन्तर गुरु के साथ वार्तालाप के सुअवसर की प्रतीक्षा करने लगे।
५९. इदं समाकर्ण्य पुनः प्रवेशनं, रघोर्गणे भिक्षुमुनेः सुदुःसहम् । नरेन्द्रपूःसत्यदलानुगामिनो, जगुर्जनास्ते बहुखिन्नमानसाः ॥
इधर मुनि भिक्षु का रघुगण में असंभावित पुन: प्रवेश को सुनकर वे सत्यपक्षी राजनगरवासी श्रावक अत्यंत खिन्न हो गए और कहने लगे
६०. स एव तथ्योद्धरधर्मधुर्धरो, विलोक्य यं विश्वसिमः स्म किञ्चित् । .
प्रसारिता येन विशालशान्तिता, प्रदर्शिता दर्शनदीर्घदर्शिता ॥ ६१. वयं च यस्मै स्पृहयालवो बहु, यतोऽभिलाषा जिनशासनोद्धतौ। अकम्पता मेरुमहीयसी महासमुद्रमुद्रेव महागभीरिमा ॥
(युग्मम्) 'हम सभी ने मुनि भिक्षु को ही धुरा को धारण करने वाले देखकर, उन पर विश्वास किया था। उन्होंने ही (हमारे अशान्त मन में) विशाल शांति का प्रसार किया था और उन्होंने ही जैन दर्शन की दूरदर्शिता का भान कराया था।'