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दशमः सर्गः
४१. सोप्येवं किल लोकधर्ममवितुं कीदृग् दृढोऽभूत् तत, एषोऽहं तु महोदयाक्षरमहासाम्राज्यलक्ष्मीच्छुकः । यल्लोकोत्तरसुकृतं भवभवे जैनं सनत्सौख्यदं, तत् त्रातुं न भवामि किं परिषहान् सोढुं समग्राग्रणीः ॥
भिक्षु ने सोचा- वे राणाप्रताप अपने लोकधर्म की रक्षा के लिए कितने दृढ रहे, फिर मैं तो मोक्षरूप साम्राज्य लक्ष्मी का इच्छुक हूं इसलिए भव-भव में शाश्वत सुख देने वाले लोकोत्तर जैनधर्म की रक्षा के लिए क्या परीषहों -- कष्टों को सहन करने के लिए मैं अग्रणी न बन्ं ?
४२. एतद्विश्वजनीन 'पीननिरघं' श्रीजैनधर्मं मुदा,
गोतुं गोप इवावदातसुमनो वाकाययोगान्वितः । सज्जोहं प्रबुभूषुरेष सुतरामाजन्म जैनं जगत्, सूर्याचन्द्रमसाविवोत्तमपदा प्रद्योतितुं श्रेयसे ॥
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मैं इस विश्वहितकारी, पुष्ट और पवित्र जैनधर्म की शुभ मन-वचन और काया से रक्षा करने के लिए गोप की भांति जीवन पर्यन्त निरंतर सावधान रहूंगा और कल्याण के लिए इस धर्म को सूर्यचन्द्र की तरह प्रद्योतित " करने के लिए तत्पर रहूंगा ।
४३. एवं धैर्यमशेष साधनवरं सन्धाय संवर्ध्य च, क्षोणीमण्डलमौलिमण्डनमणि मेवाडमाचक्रमे । धर्मोद्धारधुरन्धरो दृढमतिः प्रौल्लासयन् सन्मतं, लातुं लोलुपतां गतोऽतिललितो दीक्षां वरां नूतनाम् ॥
इस प्रकार मुनि भिक्षु समस्त साधनों में श्रेष्ठ साधन धैर्य का अनुसंधान और संवर्धन कर आगे बढे और भारतभूमि के मौलिमणि तुल्य मेवाड में आए। वे धर्म का उद्धार करने के लिए कटिबद्ध, दृढ विचारों से युक्त और सन्मार्ग को प्रोल्लसित करने वाले थे । वे वहां नूतन दीक्षा ग्रहण करने के लिए अति लालायित हो उठे ।
४४. तत्रासीद् बहुपर्वतैः परिवृतं देवालयोन्मण्डित - मद्यन्मानसमानमर्दनमदैः पद्माकरैः विस्तृतम् । रम्यारामरमामनोरमरमं वाप्यादिभिर्वल्लभमुद्यानैस्तरुगुच्छ गुल्मकुसुमक्रीडानिकुञ्जः परम् ॥ १. विश्वजनीन - लोकहितकारी । २. निरघः - पवित्र, पापरहित ।