Book Title: Bhikshu Mahakavyam
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 344
________________ ३१८ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् मेवाड देश के अन्तर्गत 'केलवा' नाम का नगर था। वह देवालयों से मण्डित, अनेक पर्वतों से परिवृत, मदभरे मानसरोवर के मान को मर्दन करने वाले सरोवरों से व्याप्त, रमणीय बगीचों की शोभा से मनोरम, अनेक दीर्घिकाओं (वापियों) से सुन्दर तथा तरु, गुच्छ, गुल्म, कुसुम तथा क्रीडानिकुञ्जों वाले उद्यानों से परिपूर्ण था। ४५. चातुर्वर्ण्यसुवर्णवर्णितसदः सौधोपसौधोद्धरं, गुण्यागण्यसपण्यपुण्यविपणेः पङ्क्त्या च पर्युल्लसत् । लीलालालितलोकनीयललनालोकैश्च लीलायितं, लक्ष्म्या लोकललामलक्ष्यविलुभल्लक्ष्मीश्वरोल्लोलितम् ॥ ४६. जैनेजैनपरैर्मुदा निजनिजानुष्ठाननिष्णातकैः, सत्साहित्यसुधारसः प्रकलितं कालिन्दिका'कोविदः । श्रीमन्मोक्खमसिंहतत्पुरपतिप्राप्तप्रतिष्ठापरं, योग्यं तत् कपिलाभिध पुरवरं सोऽलङ्चकार क्रमात् ॥ [युग्मम्] . इस नगर में चारों वर्गों के लोगों के घर थे। वहां राजघराने के बडे प्रासाद और अन्यान्य धनिकों के हर्म्य थे। वह बाजार की श्रेणी से शोभित था जहां अगण्य श्रेष्ठ वस्तुएं प्राप्त होती थीं। वह नगर लीलाकलित दर्शनीय ललनाओं तथा लोगों से शोभित तथा लक्ष्मीवान् व्यक्तियों से ललाम और अपने लक्ष्य में तल्लीन रहने वाले श्रीमन्तों से युक्त था। वहां जैन और अजैन लोग अपने-अपने धार्मिक अनुष्ठानों में निष्णात थे । वह नगर सत्साहित्य सुधारस के रसिक और कलिन्दिका-पंडितों से व्याप्त था। वह नगर ठाकुर मोखमसिंहजी द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त था। मुनि भिक्षु ग्रामांनुग्राम विहरण करते हुए उस केलवा नगर में पधारे । ४७. चातुर्मासकृतेऽथ राजनगरं यातुर्महामेघतो, मार्गाऽभाववशादिहैव समगाद् भिक्षुः पुनर्यत्नतः। प्रागेवात्रविरोधिनिर्मितमहाद्वेषप्रचारो यतः, स्थानं नैव ददाति कोपि मुनये जाता समस्या परा। १. कालिन्दिका-जिसमें आन्वीक्षिकी आदि सब विद्याओं का वर्णन हो, __ वह (कलिन्दिका सर्वविद्या'-अभि० २।१७२) २. केलवा नगर।

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