Book Title: Bhikshu Mahakavyam
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 333
________________ दशमः सर्गः ३०७ स्वामीजी के ये वचन सुनकर विमनस्क होते हुए कृष्णोजी बोले'यदि आप मुझे साथ में रखना नहीं चाहते तो मेरे पुत्र को मुझे सौंप दीजिए । मेरे जीवन के आधारभूत मेरे पुत्र को किसी भी प्रकार से आपको अपने साथ ले जाने नहीं दूंगा, यह आप निश्चित मानें ।' ८. प्रोचे भिक्षुरथोत्तरं प्रशमवान् यस्ते स्थितो नन्दन, आगच्छन्न निवारयामि बलतो नो संयमः सद्यमः । संसृत्याशु ततः स्वयं स्वकसुतं सगृह्य हस्तेन तं, कृष्णः कायॆकलाकलापकलितः स्थानान्तरं चाश्वयत् ॥ तब स्वामीजी ने शांतचित्त से अपनी अंगुली से इशारा करते हुए कहा- 'यह बैठा तुम्हारा पुत्र । यदि वह तुम्हारे साथ आना चाहता हो तो मैं क्यों मना करूं, क्योंकि जबरदस्ती से संयम एवं सद्यमों की आराधना नहीं हो सकती। यह सुनते ही कृष्णोजी शीघ्र ही अपने पुत्र को हाथ से पकडकर साथ में ले, मुंह को बिगाडते हुए, अन्यत्र कहीं चले गये । ९. आत्मार्थी परमार्थसार्थसहितोऽसौ भारिमालस्ततस्तातं बोधयितुं विबोधरहितं बुद्धया विशालोऽवदत् । कृत्वा मोहमपार्थकं मयि महाखेदाभिभूतो भवान्, कल्याणोद्यतनन्दनाय किमहो संजायते बाधकः ।। तब आत्मार्थी, परमार्थ की भावना से ओतप्रोत और उदार बालमुनि भारीमालजी अपने बोधशून्य पिता को प्रतिबोध देते हुए बोले-'आप मेरे पर व्यर्थ मोह कर क्यों अत्यन्त खिन्न हो रहे हैं ? आप कल्याण के लिए उद्यत पुत्र की कल्याण भावना में क्यों बाधक बन रहे हैं ?' १०. गृह्णाम्येतमभिग्रहं गुरुगुरुं दीक्षार्पणं पण्डितं, यावज्जीवमहं त्वदीयकरतो भोक्ष्येन्नपानं नहि । सजाते दिवसद्वयेऽन्नसलिलैः शून्ये तथापि व्रतात्, किञ्चिन्मात्रमितस्ततो न चलितो देवाद्रिवद्दीपनः॥ 'मैं दीक्षा की प्राप्ति कराने वाले इस सशक्त और महान अभिग्रह को स्वीकार करता हूं कि मैं यावज्जीवन आपके हाथ से आहार-पानी नहीं करूंगा। इस अभिग्रह के पश्चात् अन्न-पानी के बिना दो दिन बीत जाने पर भी बालमुनि अपनी प्रतिज्ञा से किंचित् भी इधर-उधर नहीं हुए, मेरु पर्वत की भांति अडोल रहे।

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