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दशमः सर्गः
१. श्रीमद्भिक्षुमुनीश्वरस्य मतिमानऽन्यायपक्षापहृत्,
क्रोधारण्यमहोग्रवह्निमुदिरो मोमुद्यमानः सदा । अन्तेवासिविनेयवारविनयी न्यायकनिष्ठापर, आसीन्छिष्यवरः प्रकाशमिहिरः श्रीभारिमालो महान् ॥
उन भिक्षु महामुनीश्वर के मतिमान्, अन्यान्य पक्ष को दूर करने वाले, क्रोधारण्य की महान् उग्रवह्नि को शांत करने के लिए मेघतुल्य, सदा प्रसन्नचेता, अन्तेवासी शिष्य-समूह में अत्यधिक विनयवान्, न्यायनिष्ठ एवं प्रकाश करने के लिए सूर्य सदृश महान् भारीमालजी शिष्यों में प्रधान शिष्य
थे।
२. शिष्योऽभूद्दशवार्षिकः सजनको भिक्षोस्तथा सद्विधेरस्थाद् वर्षचतुष्टयं रघुगणे तेनैव सार्द्ध सदा । तं प्राहकविचक्षणः क्षणविदुर्वीतस्पृहः स्पष्टवाग, भो भो शिष्य ! शरण्यसौधसुषमासौषम्यभाक् त्वं शृणु ॥
भारीमालजी दस वर्ष की अवस्था में अपने पिता के साथ स्वामीजी के पास दीक्षित हुए एवं उनके साथ रघुगण में चार वर्ष तक रहे। विचक्षण समयज्ञ एवं निस्पृह स्वामीजी ने उन्हें स्पष्ट कहा-'हे शरण्यरूप सौध की सुषमा के सौन्दर्य शिष्य ! तुम सुनो।'
.३. दीक्षां पालयितं क्षमो न जनकः कृष्णाभिधस्तावक
स्तस्मान्नव निनीषुरेतमधुना कस्ते विचारस्तंतः ।। पित्राऽमा किमु वस्तुमिच्छसितरां किं वा मयाऽऽमोदतो, भावाभिव्यजनं कुरुष्व सुतरां तुभ्यं यथा रोचते ॥
__तुम्हारे पिता कृष्णोजी दीक्षा पालने के लिए समर्थ नहीं हैं, अतः मेरी इच्छा इनको साथ में ले जाने की नहीं है। इसमें तुम्हारा क्या विचार है ? क्या तुम पिता के साथ रहना चाहते हो या मेरे साथ ? जैसी तुम्हारी इच्छा हो वह स्पष्ट रूप से बताओ। १. मिहिर:-सूर्य (मिहिरो विरोचन:-अभि० २।११) २. सौषम्यभाक्-सौन्दर्यभाक् ।