Book Title: Bhikshu Mahakavyam
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 332
________________ ३०६ ४. तेनोचे वयसा चतुर्दशसमा मानेन किन्त्वात्मिकोकच्छेक विवेकसेकपुलकप्रोल्लासवर्षीयसा' । कार्यं किं जनकेन तेन विलसत्संसारसम्बन्धिना, सम्बन्धाः खलु तादृशा इहभवे जाताः कियन्तो नहि ॥ शिष्य भामालजी केवल चौदह वर्ष के बालक ही थे, किन्तु विवेक के उत्कर्ष से वे वृद्ध थे । वे बोले – 'भगवन् ! सांसारिक पिता से मेरा क्या सम्बन्ध, क्योंकि ऐसे सम्बन्ध इस संसार में कितने नहीं हो गए हैं ? ' ५. त्राता सम्प्रति वर्त्तते मम महांस्तातस्त्वमेव प्रभो !, स्थाताऽहं तव सन्निधौ शुभधिया सत्संयमं पालयन् । विश्वासस्ति तथा त्रियोगकरणैस्ते सत्यसद्वृत्तितो, योगो दुर्लभ दुर्लभस्त्रिभुवने ह्यस्मादृशां त्वादृशाम् ॥ श्रीभिक्षु महाकाव्यम् हे प्रभो ! आप ही मेरे त्राता एवं पिता हैं। मैं शुद्ध संयम का पालन चाहता हूं, क्योंकि मुझे आपकी विश्वास है और मेरे जैसे व्यक्ति को अत्यन्त दुर्लभ है । करता हुआ आपके ही साथ रहना सत्प्रवृत्तियों पर त्रिकरणयोग से पूर्ण आप जैसे योगी का सुयोग मिलना भी ६. तं कृष्णं स्फुटमभ्यंधात् खलु ततो दीपाङ्गजोऽव्यङ्गतस्तादृक् सच्चरणोग्रभारवहने नो शक्तिमांस्त्वं तथा । तस्मात्त्वां न नयामि सार्द्धमहकं त्वत्तो न कार्यं मम, योग्यायोग्यविचारणा हि रुचिरा नो शिष्यलिप्सा वरा ॥ तब स्वामीजी ने सहजरूप से कृष्णोजी से कहा - ' कृष्णोजी ! तुम संयम के उग्र भार को वहन करने में समर्थ नहीं हो । अतः तुमको साथ ले जाने की मेरी इच्छा नहीं है और तुम्हारे से मेरा कोई कार्य भी नहीं है । संयमपथ में योग्य और अयोग्य की ही विचारणा श्रेयस्कर होती है, न कि शिष्यलिप्सा । ७. श्रुत्वेदं मुनिभारिमालसविता प्रत्यादिशद् दुर्मना, नो नीयेत यदा तदा मम सुतो मह्यं ध्रुवं दीयताम् । सार्द्धं रक्षयिता मदीयतनयं मज्जीवनाजीवनम्, दास्ये लातुममुं न कोटिकलया निश्चीयतां चेतसा ॥ १. वर्षीयस् - अत्यन्त वृद्ध ( अभि० ३।४ ) .

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