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दशमः सर्गः
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२८. श्रीहिन्दूकुलसूर्य इत्युपपदैः प्रख्यातिप्राप्तो महा
राणावीरशिरोमणिः सविजयः सिंहः प्रतापादिमः । मेवाडाधिपतिः प्रतापतपनः सन्तापितारिव्रजो, दृष्ट्वा तां सहसैतिहासिकनरः स्मृत्यागमे शक्यते ॥
उस अरावली पर्वतमाला को देखकर सहसा उस ऐतिहासिक पुरुष, महान् ख्यातिप्राप्त, वीर शिरोमणी, मेवाडाधिपति, महाराणा प्रतापसिंह की स्मृति हो आती है जो 'हिन्दुकुलसूर्य' की उपाधि से युक्त, तेजस्विता के एकमात्र सूर्य तथा शत्रुओं को संतापित करने वाला था। २९. यो रक्षेन्निजधर्ममुत्तमतमं तं रक्षयेदीश्वर, .
इत्युद्दिश्य विशिष्य चेतनबलं सामन्तसेनाबलम् । स्वातन्त्र्योद्भववैभवातिरसिकः स्वात्माभिमानोन्नतो,
म्लेच्छोन्मूलनमूलमन्त्रमहितश्चाजन्मवीरवती ॥ ३०. धर्माधःपतितः परानपि तथा कुर्वद्भिर्जस्वलैः, .
साहिश्रीमदकब्बरादिमचमूचन्द्रर्लसच्छयालकैः। मानैरन्यसजातिमानमथकैरातिथ्यताऽनेहसि, नो भुक्तं न मतं च हिन्दुरविणा तेन स्वधर्मार्थिना ॥ (युग्मम्) ___जो अपने उत्तम धर्म की रक्षा करता है, उसकी रक्षा ईश्वर करता है-इस उद्देश्य से अपने सामंतबल, सैन्यबल एवं चेतनबल को दृढ कर, स्वतन्त्रता से उद्भूत संपदा के रसिक, स्वाभिमान से उन्नत तथा म्लेच्छों के उन्मूलन के मूलमंत्र से विख्यात एवं आजन्म वीरव्रत के धारक
उस हिन्दुकुल के सूर्य प्रतापसिंह ने उस मानसिंह के साथ आतिथ्य के समय में भी न तो उसके साथ भोजन किया और न उसको सन्मान ही दिया। वह मानसिंह स्वयं धर्म से पतित और दूसरों को भी धर्मच्युत करने वाला था। वह ओजस्वी राजा अकबरशाह का मुख्य सेनानी और साला था । वहः सजातीय क्षत्रियों के मान को मथित करने वाला था।
३१. तन्नुन्नः प्रतिलब्धचारुसमयो व्युद्ग्राहितक्षत्रिय
श्चान्तःक्ष्वेड'बहिर्महामधुरया नीत्या स दील्लीश्वरः। तं दासीप्रचिकीर्षुरुद्भटभटः कर्तुं कलङ्कान्वितं,
क्रुद्धस्तेन सहातिभीषणरणं प्रारब्धवान् प्रौढिमान् ॥ १. नुन्न:--प्रेरित (नुन्ननुत्तास्तक्षिप्तमीरितम्-अभि० ६।११८) २. क्ष्वेड:-विष (विषः क्ष्वेड:-अभि० ४।२६१) ३. प्रौढिमान्–उत्साहित (अभियोगोद्यमौ प्रौढि:-अभि० २।२१४)