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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १८. प्रत्यग्रं व्रतशेवधि' शिवफलं नेतुं प्रचेतुं परं,
तस्योच्चैविजयध्वजे विलसिते मन्त्राय चैकत्रिताः। 'ते हर्षेण परस्परं प्रथमतः सैद्धान्तिकी तात्त्विकों, चर्चा चारुतरां विचित्रविषयां चक्रुः पुनर्मेनिरे ॥
मोक्षफलदात्री नवीन व्रतरूप निधि को प्राप्त करने के लिए एवं गृहीत व्रत की पुष्टी के लिए स्वामीजी के उच्च विजयीध्वज के नीचे मन्त्रणा करने के लिए सभी सन्त एकत्रित हुए और अत्यन्त उल्लास से सबसे पहले सैद्धान्तिक व तात्त्विक विषयों की सुन्दर चर्चाएं की और स्वामीजी ने जो निर्णय दिया उसको सभी सन्तों ने स्वीकार कर लिया।
१९. चाः केपि रहोमयाः सुविषयाः सम्पचिताश्चचिताः,
केचित् किन्त्ववशिष्टतां परिगता अत्यल्पतः केचन । आयाते निकटे महोत्कटघटे वर्षागमे शोभने, प्रत्येकं स्वभिमन्न्य भिक्षुमुनिना मन्त्रोपमं व्याहृतम् ॥
कुछेक रहस्यमय विषयों पर गंभीर चर्चाएं हुईं, कुछ चर्चाएं अवशिष्ट रह गईं और कुछेक विषयों पर थोडी चर्चाएं चलीं। जब उत्कट घटा को धारण करने वाला वर्षाकाल निकट आ गया तब सन्तों को एकत्रित कर स्वामीजी ने मंत्र की भांति सार-संक्षेप में कहा
२०. उत्तीर्णे च घनाघनागमऋतावस्मिन् पुनः शान्तितः,
शेषांस्तान् विषयान् विचितुमहो यत्नेप्सवो ये वयम् । श्रद्धा सम्मिलिता भविष्यति मिथः सम्भोगिनस्तैः समं, नो चेत्तैमिलनं कदापि न कुतो ह्येषोऽस्ति नो निर्णयः॥
'श्रमणवृन्द ! (यह वर्षावास आ गया है, अतः चतुर्मास के लिए कुछ मुनियों को अन्यत्र जाना पड़ेगा) परन्तु चतुर्मास पूर्ण होने के बाद हम पुनः मिलेंगे और अवशिष्ट विषयों पर शांति से चर्चा करने का प्रयत्न करेंगे तथा जिन-जिन मुनियों के विचार एक होंगे, श्रद्धा एक होगी, उनके साथ ही हमारा संभोज होगा और जिनकी श्रद्धा नहीं मिलेगी इनके साथ हमारा सांभोजिक व्यवहार नहीं रहेगा, यह मेरा अटल निर्णय है।'
१. प्रत्यग्रम्-नवीन (प्रत्यग्रं नूत्ननूतने-अभि० ६।८४) २. शेवधिः-निधि (कुनाभिः शेवधिनिधिः-अभि० २।१०६)