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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् यह एक शाश्वत विधान है कि कोई भी सद् वस्तु अपनी विरोधों असद् वस्तु से मिश्रित होते ही अपने सहज सद्रूप को छोड़ असद्रूप में परिणत हो जाती है । जैसे दूध से भरे पात्र में कांजी की एक बूंद गिरते ही सारा दूध फट जाता है, नष्ट हो जाता है।
४०. एवं स्पष्टं कथमिह मिथोत्यन्तजाग्रतिरोधि,
पुण्यं चांऽहो मिलति युगपत् स्फूर्जदेकत्रकृत्ये । ... यस्मिच्छङ्का यदि च भवतां स्यात्तदानीं त्वराभिः, सिद्धान्तानां समुचिततया कार्यमालोकनीयम् ॥
इससे यह स्पष्ट है कि परस्पर अत्यंत विरोधी पुण्य और पाप एक ही कार्य में साथ-साथ कैसे हो सकते हैं ? गुरुवर ! यदि आपको इसमें शंका हो तो आप सम्यक् प्रकार से आगमों का शीघ्र अवलोकन करें।
४१. अर्हन देवो गुरुनियमभृत्सद्गुरुः संयमाढयः,
केवल्युक्तो वधविरहितः शाश्वतः सैव धर्मः। एतद्रत्नत्रयमनुपम सर्वलोकेष्वऽनयं, त्रिष्वेतेषु प्रकृतिगुणतो नो मनाग मिश्रता स्यात् ॥
अर्हत्-तीर्थंकर देव हैं, जो महाव्रतों के पालक और संयम से परिपूर्ण हैं वे गुरु हैं और केवलज्ञानी द्वारा प्ररूपित अहिंसा ही शाश्वत धर्म है । यह रत्नत्रयी संपूर्ण लोक में अनुपम और अनर्घ्य है। इन तीनों के जोजो गुणगण हैं उनमें तनिक भी मिश्रण नहीं होता।
४२. घाताऽघातद्विविधफलकृन् नो यथान्नं विषाक्तं,
तद्वन्मोहाद्युपगतवृषो' ह्यर्थकारी न नूनम् । न ह्येवं स्यात् कथमपि गुरो ! मोहरागानुकम्पा, पुण्यापुण्योभयफलकरीत्थं विबोध्यं च सर्वम् ॥
जैसे विषाक्त भोजन मारने वाला और उबारने वाला (पुष्टि देने वाला)-दोनी नहीं हो सकता, वैसे ही मोक्ष से अनुगत धर्म भी दो प्रयोजनों-उत्थान और पतन को सिद्ध करने वाला नहीं होता। गुरुवर ! इस प्रकार मोह और राग से संवलित अनुकंपा भी पुण्य और पाप--दोनों फलवाली नहीं हो सकती-यह जान लेना चाहिए ।
१. वृषः-धर्म, पुण्य (धर्मः पुण्यं वृषः श्रेयः- अभि० ६।१४) ।