________________
नवमः सर्गः
७१. सत्सामूह्याज्जगति जनताकर्षणोत्सर्पणादि,
तस्याभावे तदसदिव तन्निस्तरामो वयं तु। स्तोकाः सन्तोप्यहह तरितुं नेश्वरा निःस्पृहाः कि, स्वात्मोद्धारः प्रमुखविषयः साध्यतेऽस्माभिराशु ॥
यह सच है कि यदि शुद्ध साधुओं का समूह हो तो उससे जगत् में लोगों का आकर्षण हो सकता है और अनुयायियों की संख्या भी बढ़ सकती है। उसके अभाव में वैसा नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में हम तो अपना निस्तार करें। क्या थोडे भी निःस्पृह व्यक्ति भवसागर को तैरने में समर्थ नहीं होते ? आत्मा का उद्धार करना हमारा प्रमुख विषय है। अब शीघ्र ही हमें उसे साध लेना चाहिए।
७२. प्रस्तावेऽस्मिन् सहजसुभगोऽगाद् वसन्तो वसन्तं, - तं शैथिल्याचरणचलिताचारचारित्रवत्सु।
दृष्ट्वा कामाकुलसुहृदसावित्यनिष्टप्रवादप्रक्षालाय प्रवरसमयं प्राप्त इत्युज्जहास ॥
जब भिक्षु स्वामी आत्मोद्धार की भावना से ओतप्रोत हो रहे थे, उस समय सहज सुखद वसन्त ऋतु का आगमन हुआ और उसने शिथिलाचार के कारण चारित्रशून्य साधुओं के साथ निवास करने वाले भिक्षु को देखकर सोचा-'संसार में मेरा यह अपवाद. है कि वसन्त ऋतु कामातुर व्यक्तियों के लिए मित्रवत् है।' अब उस. कलंक को धोने का सुअवसर प्राप्त हो गया है। मैं भिक्षु को सद्प्रेरणा देकर उस अपवाद को मिटा दूं। .
७३. कामान्धाऽनां तदभिलषिताऽऽमोदसम्मोददैः किं,
पुण्याद् भ्रष्टः स्वयमपि परेषामपि भ्रंशकोऽहम् । अद्यतं सत्पथपथिकतामाश्रयन्तं वितीर्य, प्रोत्साहं स्यां सुकृतफलवानित्यसौ तत्सहायी ॥
.
वसंत ने सोचा--'कामांध व्यक्तियों को अभिलषित आमोद-प्रमोद की सामग्री प्रदान करने से क्या ? मैं स्वयं धर्म से भ्रष्ट हूं तथा दूसरों को भी पथच्युत करता हूं। तो आज मैं सत्पथ का आश्रय लेने के लिए उत्सुक मुनि भिक्षु को प्रोत्साहन देकर पुण्योपार्जन करूं।' ऐसा सोचकर वह वसंत ऋतु उनका सहयोगी बन गया।