Book Title: Bhikshu Mahakavyam
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 296
________________ श्रीभिक्षु महाकाव्यम् भिक्षु को सहसा विवश करने के लिए आचार्य रघु की आज्ञा से श्रावक संघ ने एक सेवक के द्वारा बगडी नगर के घर-घर में यह स्पष्ट घोषणा करवाई कि भिक्षु को ठहरने के लिए कोई भी गृहस्थ स्थान न दे । यदि कोई गृहस्थ इस घोषणा को सुनने और जानने के बाद भी भिक्षु को स्थान देगा तो वह आज्ञाभंग का दोषी होगा और वह संघ द्वारा दंडनीय होगा । यह मुनि भिक्षु मेरी आज्ञा से बाहिर है, अविनयी है और संघ से बहिर्भूत है । यह अयोग्य है । यह धार्मिक श्रावकों द्वारा किसी भी प्रकार से माननीय नहीं हैं । २७० ८९. नाभूदस्माद् घृणितघृणिताद् रौद्ररूपाद् विरोधाद्, भीतभीरुः परमपथगो भिक्षुरक्षुण्णतेजाः । fi पारीन्द्रो मृगशशमुखारण्यजातैविदृब्धैः, कष्टः क्लिष्टो भवति सहजौजस्विवर्यैकवर्यः ॥ - मोक्षपथ के पथिक भिक्षु अभय और अक्षुण्ण तेजयुक्त थे । वे इस घृणित और रौद्र विरोध से तनिक भी भयभीत नहीं हुए । क्या स्वभाव से ही महान् पराक्रमी सिंह, मृग, शशक आदि अरण्यपशुओं द्वारा संपादित कष्टों से कभी घबराता है ? ९०. पुंसिहोऽसावविचलतया निश्चिते स्वीयमार्गे, तिष्ठन् धीरो जलनिधिहृदा लोचते लोचनार्हः । ऐापत्त्या यदि पुनरहं स्थानके सङ्गतः स्यां, पश्चात्तस्मान्मदभिलषितो निर्गमो दुर्लभोऽयम् ॥ पुरुषसिंह मुनि भिक्षु अपने स्वीकृत और निश्चित मार्ग पर अविचल थे । वे सागर की भांति धीर-गंभीर थे । उन्होंने सोचा - यदि मैं इन आपत्तियों से घबराकर पुनः स्थानक में चला जाता हूं तो फिर मेरे लिए उससे इच्छानुसार निकल पाना अत्यंत दुष्कर हो जाएगा । ९१. संकल्प्यैवं मनसि मतिमान् भाविकष्टापकृष्टां चिन्तां सूक्ष्मामपि न विदधत् सिंहवृत्त्या निवृत्त्यै । तस्माद् द्रंगात् प्रशमरसभृत् संयमार्थीवगेहानिष्क्रान्तोऽनागतभयमुचां मुख्यमुख्यः सभिक्षुः ॥ इस प्रकार मतिमान् भिक्षु संकल्प कर, भविष्य की भी न करते हुए सिंहवृत्ति से निवृत्ति के लिए उस नगर से पडे जैसे प्रशमरस से परिपूर्ण संयमार्थी पुरुष घर से निकल पडता है । उस समय अभय व्यक्तियों में अग्रणी मुनि भिक्षु अनागत भय से सर्वथा अस्पृष्ट थे । सूक्ष्मतम चिन्ता वैसे ही निकल

Loading...

Page Navigation
1 ... 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350