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नवमः सर्गः
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८४. द्रव्याचार्याननमपि तदा श्यामतास्वादलेहि,
ग्लानं म्लानं कमलमिवं सत् पुण्डरीकं हिमान्या। हा हा ! जातं किमिति मनसाऽतकितं मे समक्ष- . मित्थं सोभूच्च्युतपथ इवालोचनाशोचनाभ्याम् ॥
उस समय द्रव्याचार्य का मुंह श्याम हो गया। वह मुरझाए हुए कमल की भांति तथा हिमपात से आहत पुंडरीक जैसा दीखने लगा। उन्होंने मन ही मन सोचा-'मेरे सामने ही यह क्या हो गया ?' इस प्रकार वे चिन्तन और विमर्श करते हुए दिग्मूढ हो गए। ८५. इत्थं भिक्षुः स्वगुरुभिरमाहारपानीययोश्च,
वैसम्भोग्यात् स्वशिरसि महाशङ्कटाद्रीनुदस्थात् । यत् तत्काले गणिरघुरभूत् प्रौढसामर्थ्यशाली, लोके लोका अपि तदनुगाः पुष्कलाः पक्षरूढाः ॥
इस प्रकार मुनि भिक्षु ने • अपने गुरु के साथ आहार-पानी आदि के समस्त संभोगों (संबंधों) को तोडकर महान् संकट के पर्वत को अपने शिर पर उठा लिया। क्योंकि उस समय आचार्य रघुनाथजी पूर्ण सामर्थ्ययुक्त शक्तिशाली आचार्य थे और उनके पक्षधर श्रावक भी अत्यधिक संख्या में थे।
८६. श्रीमद्भिक्षी भगवति पृथक् सम्प्रवृत्ते ह्यनेन,
प्रारब्धस्तै रघुरघुवरैर्घोररूपो विरोधः। प्रत्यावृत्त्या कथमपि पुनर्भीतितः स्थानकेऽसौ, प्रत्यागच्छेदिति निजमनोभावनागूढलक्ष्यः ॥ ___ आचार्य रघुनाथजी ने सोचा कि कष्टों से भयभीत होकर मुनि भिक्षु पुनः विचार कर स्थानक में आ सकते हैं। अपने मन के इस गूढ लक्ष्य से प्रेरित होकर श्रीमद् भिक्षु के पृथक् हो जाने पर उन्होंने उनके साथ घोर विरोध प्रारंभ कर दिया। ८७. एतं भिक्षु सपदि विवशीकर्तुमेतेन मञ्ज,
गेहे गेहे वगडिनगरे स्फोरितः सेवकश्च । तद् द्वारा तैः स्फुटतरमियं घोषणा घोषितवं,
स्थानं केनाप्यहह गृहिणा भिक्षवेऽस्मै न देयम् ॥ ८८. यो वा कोपि श्रुतविदित ना दास्यते स्थानमस्मा
याज्ञाभङ्गात् स खलु मनुजः सर्वसंघेन दण्ड्यः । मनिर्देशाद् बहिरविनयी निर्गतः सम्प्रदायादेषोऽन) समसुकृतिभिर्माननीयो न किञ्चित् ॥ (युग्मम्)