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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
उसी प्रकार मुनिवर्य ! सम्यग्ज्ञान-दर्शन और चारित्र, निर्मल उद्देश्य से किया जाने वाला दान, शील का अनुष्ठान, सुभावना से तपा गया तप, भव्य प्राणियों को प्रतिबोध देना, सत्स्वाध्याय करना, चरण-करणों की आराधना करना, स्वयं को साधना एवं आठ योगों से जिनमत की प्रभावना करना—ये सब आपकी संपदाएं हैं।' ८१. संवर्द्धस्वाप्रतिहतगतेविघ्नबाधां विपोथ्य, . निर्भीकः सन् पथि निपतितापन्महाशैलदुर्गान् । श्रुद्धापेक्षः स्वपरतरणोत्तारणोद्देश्यमात्रात्, सत्योद्घोषं विदधदभितोऽहं यथा त्वं तथा स्याः॥
__ मुनिवर ! आप अप्रतिहत गति से आगे से आगे बढ़ते रहें। आप सभी विघ्न-बाधाओं को दूर कर, निर्भीक होकर, मार्ग में आने वाली महान् पर्वत की भांति दुर्गम आपदाओं को समाप्त कर चलते चलें। आप स्वयं भवसागर को तैरने और दूसरों को तैराने के शुद्ध उद्देश्य से सत्य की उद्घोषणा करते हुए चारों और घूमें, जैसे मैं घूमता हूं। ५२. किं तन्नुन्नो वदति सनयः सौत्रवार्ता मनुष्व,
नो चेन्नो त्वं ममगुरुरहं नैव शिष्यस्त्वदीयः। उक्तेऽप्येवं कथमपि न तैः स्वाग्रहासक्तचित्तः, सन्तोषाह किमपि गदितं सूत्तरं नैव किञ्चित् ॥
अनुमान होता है कि क्या उसी बसन्त ऋतु से प्रेरित होकर मुनि भिक्षु ने आचार्य रघुनाथजी से युक्ति पुरस्सर कहा-आप आगम की बात को मानें। यदि आप नहीं मानते हैं तो न आप मेरे गुरु हैं और न मैं आपका शिष्य । इतना कहने पर भी अपने आग्रह से प्रतिबद्ध आचार्य रघु ने सन्तोषप्रद कोई उत्तर नहीं दिया। ८३. तस्माद् भिक्षुर्मधु'सित'दले कर्मवाटयां नवम्यां,
नव्याब्दादौ प्रशमरसवान् धर्मनीतिप्रतीष्ठः । शान्त्या कान्त्याऽतरलतरसा त्रोटयित्वा हि सर्वान्, सम्भोगांस्तैः सह सपदि स स्थानकान्निःससार ॥
इसीलिए नये वर्ष के प्रारंभ में, चैत्र शुक्ला नवमी के दिन प्रशान्तरस में ओतप्रोत, धर्मनीतिनिष्ठ भिक्षु ने शांति, गंभीरता और दृढ साहसिकता के साथ आचार्य रघुनाथजी के साथ बने हुए सभी संभोगों (संबंधों) को तोडकर उस स्थानक से बाहर निकल गए। १. मधु:-चैत्र मास (चैत्रो मधुश्चैत्रिकश्च-अभि० २।६७) २. सितः-शुक्ल (अभि० ६।२८)