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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् यदि तेला ऐसे नहीं हो सकता है तो फिर जानबूझकर बार-बार ‘दोषों का सेवन करते रहने से श्रामण्य कैसे संभव हो सकता है ? आर्य ! '' आगमोक्त सत्य से हमें यह बताएं। मैं अर्हतों की अनुशिष्टि को शिरोधार्य कर, प्रसन्नतापूर्वक प्राणोत्सर्ग करके भी शुद्ध मुनित्व की आराधना करने का आज भी इच्छुक हूं।
१०४. नैराश्याम्भोधरखरघटोद्घाटिनों भारती तां,
श्रुत्वा भिक्षोः खलु गुरुवरः प्राह तं तीवबाण्या। निर्वोढुं त्वं न हि न हि तथा पञ्चमारे समर्थः, मन्यस्वैतां हितगिरमिमां ह्यन्यथा तेऽनुतापः॥
मुनि भिक्षु की वाणी रघुनाथजी के निराशापूर्ण बादलों की निष्ठुर घंटा को छिन्न-भिन्न करने वाली थी। वे उसे सुनकर प्रचण्ड वाणी में बोले --- 'भीखन ! इस पांचवें आरे में वैसा तुम कर नहीं सकोगे। तुम मेरी इस हितकारी वाणी को सुनो, अन्यथा तुम्हें अनुताप करना होगा।'
..१०५. आकण्यवं सपदि सुतरां सोऽपि तं प्रोत्ततार,
तच्छां वाचं किमिव भवतामभ्युपैम्यप्रमाणाम् । सत् सिद्धान्तान् जिनविरचितान् वाचयित्वा प्रकाममन्तं कृत्वा निरवसमहं नास्ति शङ्काद्य किञ्चित् ॥
यह सुनकर मुनि भिक्षु तत्काल उत्तर देते हुए बोले-'आर्य ! आपकी इस तथ्यहीन और अप्रामाणिक बात को कैसे स्वीकार करूं ? मैंने जिनेश्वरदेव द्वारा रचित ससिद्धान्तों का गहरा अध्ययन कर निर्णय किया है, अब मैं निश्चित हूं। मेरे में अब कोई शंका नहीं है ।' ..
१०६. तीर्थं तस्यान्तिमजिनपतेः पञ्चमाङ्गप्रमाणाद, ...गम्येतत्तद् ध्रुवतरपथा पञ्चमारावसानम् । ... तस्मादाज्ञां जिनभगवतामुत्तमाङ्ग निधाय,
प्रवज्याया अविकलतया पालनार्थ समुत्कः॥
'आर्य ! पांचवें अंग-आगम भगवती के प्रमाण से यह माना गया है कि अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर का शासन निश्चित रूप से पांचवें आरे के अन्त तक चलेगा। इसलिए भगवान् की आज्ञा को शिरोधार्य कर प्रव्रज्या का अविकल पालन करने के लिए मैं उत्सुक हूं।'