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नवमः सर्गः
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आचार्य रघुनाथजी की वाक्पटुता ने जयमल मुनि को चिन्ताक्रान्त बना डाला। अब वे मुनि भिक्षु को सहयोग देने में अन्यमनस्क हो गए। ठीक कहा है कि सत्य को जान लेने पर भी मनुष्य के लिए उसका वहन करना दुर्लभ हो जाता है। आचार्य जयमलजी के विचारों को मोडने के अपने लक्ष्य में आचार्य रघुनाथजी सफल हो गए। १९४. स्वाऽसामर्थ्यप्रकटनपरः प्राह भिक्षु जयादि
राकण्ठाग्रं कलित इव सम्बुध्यमानोऽपि साक्षात् । नीरं तीरं निजनयनतो लोकमानोऽपि नागः, कि निर्गन्तं प्रभवति महापंकमग्नो विशेषात् ॥
जयमलजी ने अपनी असमर्थता प्रगट करते हुए मुनि भिक्षु से कहा-मैं सत्य को साक्षात् 'जानता हुआ भी परिस्थितियों के पंक में आकंठ निमग्न हूं। हाथी अपनी आंखों से पानी को भी देख रहा है और तट को भी देख रहा है। परंतु गहरे पंक में निमग्न होने के कारण 'नो नीरं नो तीरं' की उक्ति को चरितार्थ करता हुआ क्या वह बाहर निकल सकता है ? क्या वह पानी को ही पा सकता है, या तीर को ही पा सकता है ? (मेरी भी यही दशा है।)
१९५. धन्यः श्रीमानतिशयमनःशक्तिसम्पन्नशूर,
आगन्त्री यत्यजति तृणवत् सर्वसंघीयलक्ष्मीम् । आत्मार्थाथिप्रमुखपदभाग् धीरताधारिधुर्य, एवं दिष्टया विदलिततमः साधुतापालनोत्कः॥
श्रीमन् ! आप अतिशय मनोबली और शूर हैं। आप धन्य हैं कि आप आने वाली संघलक्ष्मी को तृण की भांति ठुकरा रहे हैं । आप आत्मार्थी व्यक्तियों में अग्रणी, धैर्य धारण करने वालों में प्रमुख हैं। आप पापों का दलन कर साधुता को पालने में उत्कंठित हो रहे हैं।
१९६. आशीर्वादार्पणमुखरितस्तद्विचारान् प्रकामं,
भूयो भूय स्तवनविषये सम्मदादाऽऽनयामि । शीघ्र शीघ्र नयतु नयनात् सच्चरित्रं पवित्रं, पालं पालं भवतु भुवने जैनमार्गप्रकाशी ॥
आशीर्वाद देने के लिए मुखरित होते हुए जयमलजी बोले-'आर्य भिक्षु ! मैं आपके विचारों की भूरि-भूरि प्रशंसा करता हूं और यही कामना करता हूं कि आप शीघ्र ही पावन सच्चरित्र को स्वीकार करें और उसका पालन करते हुए संसार में जैन धर्म को प्रकाशित करें।'