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१९७. रध्वाचार्यः सततममुनाऽसत्प्रकारैः प्रकामं, बाधाः संस्थापयितुमभितो यत्र तत्र प्रसक्तः । किन्त्वेषोप्यद्भुततरभटो मोक्षसाम्राज्यकामी, तत्तत्कष्टः सुरगिरिसमो नो मनाक् क्षोभमाप ॥
आचार्य रघुनाथजी विविध असत् प्रयत्नों से भिक्षु के मार्ग में बाधाएं उपस्थित करने में प्रयत्नशील रहे । किन्तु भिक्षु एक अद्भुत योद्धा थे । वे मोक्ष साम्राज्य को हस्तगत करने के इच्छुक थे । वे प्राप्त कष्टों से तनिक भी क्षुब्ध नहीं हुए और अपने स्वीकृत पथ पर मेरु पर्वत के समान अडिग रहे ।
१९८. यथार्थोऽयं महाऽऽलोकः, सर्गेण विततो ध्रुवम् ।
फलं च व्यक्तिवैशिष्याद्, भवितृ प्रतिभानिभम् ॥
श्रीभिक्षु महाकाव्यम्
मैंने इस सर्ग में यथार्थ का महान् आलोक फैलाने का प्रयत्न किया है । इसका फल व्यक्ति विशेष तथा अपनी-अपनी प्रतिभा के अनुसार ही मिलेगा ।
श्रीनाभेय जिनेन्द्रकार मकरोद्धर्मप्रतिष्ठां पुनर्, यः सत्यग्रहणाग्रही सहनयै राचार्य भिक्षुर्महान् । तत्सिद्धान्तरतेन चारुरचिते श्रीनत्थमल्लर्षिणा, काव्ये श्रीमुनिभैक्षवेऽत्र नवमः सर्गो विशालोऽभवत् ॥
श्रीनत्यमर्षिणा विरचिते श्रीभिक्षुमहाकाव्ये भिक्षोः रघुचार्यैः सह तत्त्वचर्चा, जयमलाचार्यैः सह विचारविनिमयस्तेषां सहयोगाश्वासनमित्येतत् प्रतिपादको नवमः सर्गः ।