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नवमः सर्गः
१०७. एतद् श्रुत्वा त्रुटितविवश प्रान्ततन्तुप्रतानाsऽचार्यस्यार्तेरचलदधिका मोहतश्चाश्रुधारा । श्याम प्रागुदसहितो भानुराख्यत्तदषिगच्छेशः सन् किमिव भवताल्लोकलक्ष्यः प्लुताक्षः ॥
उस समय
यह सुनकर रघुनाथजी की दुराशा के प्रान्त - तार टूट गए और तब दुःख और मोह के कारण उनकी आंखों से अश्रुधारा बह चली । श्यामदासजी महाराज के संप्रदाय के मुनि उदयभानजी वहीं उपस्थित थे । उन्होंने रघुनाथजी से कहा -- ' आप गच्छाधिपति हैं । आप ऐसा क्यों कर रहे हैं ? लोगों के देखते हुए आप क्यों आंखें गीली कर रहे हैं ? '
१-०८. सोऽवक् कस्याप्ययति सुमुने ! कोपि चैकोपि तत्र, चिन्तात्यन्ता भवति सुहृदो बुद्धिविद्याविभूतेः । यन्त्यऽस्मत्तस्त्वनुपमतमाः पञ्चपञ्चैकदाऽमी, धैर्याधारं स्फटति हृदयं मेऽद्य तादृग्श्वियोः ॥
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आचार्य रघुनाथजी बोले- 'मुने ! जिस किसी गच्छ का एक साधु भी गच्छ से चला जाता है तो उस गच्छ के सुहृद् और बुद्धि-विद्या से समृद्ध आचार्य को अत्यंत चिन्ता होती है । किन्तु यहां से पांच-पांच अनुपम मुनि एक साथ चले जा रहे हैं । ऐसी स्थिति में धैर्यधारी मेरा हृदय इस वियोग से आज चूर-चूर न हो, यह कैसे संभव है ? '
१०९. आसीत्प्रेयान् गणपतिरघोः सर्वशिष्यावतंसः,
श्रीमद्भिक्षुः प्रखर मतिमान् कोविदानां कलाढ्यः । सन्धे तादृक् भवनमधिकं गौरवं गौरवं सत्, सौभाग्यं श्रीगणपरिवृढस्यापि विश्वप्रशस्यम् ॥
मुनि भिक्षु गच्छगत मुनियों में शिरोमणी, प्रखर बुद्धि संपन्न तथा विद्वानों में लब्धप्रतिष्ठ थे । वे आचार्य रघुनाथजी के परमप्रिय शिष्य थे । संघ में ऐसे व्यक्ति का होना संघ का अत्यधिक गौरव और साथ ही साथ गण के आचार्य का भी जन-जन द्वारा प्रशंसनीय सौभाग्य है ।
११०. किन्त्वेतस्य प्रतिवचनत श्छिन्नभिन्नाभिलाषो, नैरानन्द्यानुभवनपरोऽयं विषण्णो निषण्णः । मोहादस्माद् गुरुवरगतात्प्राकृताद् द्रावणीयादात्मान्तेभ्यस्तदपि च मनाग् नो व्यचालित् स भिक्षुः ॥
१. विवश: - अनिष्ट बुद्धिवाला ( विवशोऽनिष्टदुष्टधीः - अभि० ३।१०२)...