Book Title: Bhikshu Mahakavyam
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 312
________________ श्रीभिक्षु महाकाव्यम् यदि पूर्वोक्त बात मानी जाए तो हमें यह भी सोचना होगा कि जब भगवान् विहरण करते हुए गांवों-नगरों में आते हैं तब उनके दर्शनार्थ आने वाली जनता के द्वारा हिंसा आदि होती है । उस हिंसा आदि के बीजभूत क्यों नहीं होंगे भगवान् ? भगवान् को भी वापिस लौट जाना चाहिए । नहीं, ऐसा नहीं होता । भगवान् का आगंतुक नर-नारियों के साथ कोई लगाव नहीं और न ही उनकी ओर उनकी अभिमुखता ही है । वे तो इस प्रक्रिया में केवल दूर निमित्त हैं, सीधे निमित्त नहीं हैं । २८६ १४५. रक्षानाम्ना त्वहह ! कियती रक्ष्यजन्तोः परेषां, हिंसा तस्याप्यविरतिभवैनः प्रबंधत्वतश्च । तस्माद्धिसाशयविरमणं तत्त्वतः सा ह्यहिंसा, नो चेत् सर्वाऽनवनवशतः सर्वथाऽहिंसकः क्व ॥ रक्षा (दया) के नाम से बचाए जाने वाले प्राणियों के लिए दूसरे कितने प्राणियों की हिंसा की जाती है तथा रक्ष्य प्राणियों की अविरति के पाप को बढ़ाने में भी हम ही सहायक बनते हैं । इसलिए हिंसा के आशय से विरत होना ही वास्तविक अहिंसा है । यदि ऐसा न माना जाए तो सभी जीवों के रक्षण के सामर्थ्य के अभाव में सर्वथा सकता है ? अहिंसक कौन हो १४६. सम्यग्ज्ञानादिककरणतो मोक्षसाध्यप्रसिद्धिरम्भाद्यैः कथमपि भवेत्पुण्यधर्मप्रसूतिः । साध्याभं स्यात् खलु फलदृशा साधनं साधकानां, साध्यं तद्वद् भवति सुतरां साधनाभं सदैव ॥ वास्तव में सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यग् चारित्र ही मोक्षआरम्भ आदि के द्वारा पुण्यधर्म की से साधकों का साध्य के अनुरूप साध्य की सिद्धि में कारणभूत होते हैं । प्रसूति नहीं हो सकती । फल की दृष्टि साधन और साधन के अनुरूप ही साध्य होना चाहिए । १४७. पारम्पर्यं सदृशमपि तद् ह्यन्यथातिप्रसङ्गः, साधे तावपि जिगमिषा पापिनी कि प्रवृत्त्या । शास्त्र रुद्धे कथमपि कदा काप्यपेक्षा न कार्या, तत्र स्वयं पतनमभितश्चार्ह दाशातनापि ॥

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