Book Title: Bhikshu Mahakavyam
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 316
________________ २९० श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् * यदि आप कहेंगे कि पात्र को देने से पुण्य है, यह हमारा अभिमत हैं। यह भी चिन्तनीय है, क्योंकि पात्र तो वह हो जो हिंसा आदि से विरत है और वह साधु ही पात्र हो सकता है, इतर गृहस्थ नहीं । आगमों में साधु के लिए योग्य नौ वस्तुओं को ही पुण्य के रूप में गिनाया है, स्वर्ण आदि को नहीं। यदि कोई यह कहे कि यहां साधु और गहस्थ का कोई भेद निरूपित नहीं है तो फिर प्रतिप्रश्न होगा कि नौ पुण्यो में एक है नमस्कार पुण्य । यहां भी भेद निरूपित नहीं है । तो क्या हर किसी को नमस्कार करने से पुण्य होगा? १५७. घोराऽघं किञ्चिदपि मनसाऽशुद्धदाने मुनिभ्य स्तत्वन्येभ्यो वितरणतया स्यात् कथं पुण्यपुञ्जः। । सद्भावैश्चेन्नहि नहि तथा दातुरादातुरित्थं, . . देयादेये अविरतितमोवृत्तिवर्धापके च ॥ यदि मुनि को जानबूझकर अशुद्ध आहार देने से घोर पाप का बंध होता है तो फिर गृहस्थों को वह दान देने से पुण्य कैसे होगा ? यदि कहा जाए कि सद्भाव से देने के कारण पुण्य होता है तो यह भी संगत नहीं है क्योंकि उससे देने वाले तथा ग्रहण करने वाले दोनों के पाप और अविरति की ही वृद्धि होगी। १५८. तादृग्दानग्रहणमपि वा स्पष्टसावद्यमेव, प्रत्याख्यानात् खलु समतया तस्य सामायिकादौ । तत्सम्बन्ध्याशयपरिहतान्नाऽपि शुद्धाश्च भावा, नो चेत्तत्राप्यधिकमधिकं कारणीयं च कार्यम् ॥ वैसा दान देना और ग्रहण करना-दोनों ही स्पष्ट रूप से सावद्य हैं । — सामायिक आदि अनुष्ठानों में उसका सामान्यतया प्रत्याख्यान किया जाता है और उस संबंधी आशय का भी त्याग होता है क्योंकि वैसा दान देना और लेना शुद्ध भाव नहीं हैं। यदि ऐसा नहीं है अर्थात् दोनों शुद्ध ही हैं तो फिर सामायिक आदि में उनको अधिक से अधिक करना चाहिए और दूसरों से करवाना भी चाहिए। १५९. आर्हन्त्याज्ञाविरहितजगत्कृत्स्नकार्याणि तान्य ऽनासक्त्याद्यैरपि विदधतां तेषु तेषां न धर्मः। तैः सावद्यावनददनवत् किन्तु मन्दाशयत्वात्, तीवाऽतीवाध्यवसितिवशः कर्मबन्धो हि मन्दः ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350