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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ::. खांड और धूल तथा गुड और खली के समन्वय की भांति शुद्ध आचार का पालन करने वाले साधुओं के साथ भ्रष्टाचारी मुनियों का साम्य कैसे युक्तियुक्त हो सकता है ? इसे उदारता माना जाए तो यह वैसी ही उदारता है जैसे यदि कोई जवेरी अपनी दूकान के मणियों को लुटा कर अपनी उदारता दिखाता है। इसी प्रकार अनेकों के हित का हरण करने वाली केवल नामरूपधारी साधुओं के समन्वय की उदारता से क्या ?
१७७. गत्याऽऽगत्या न च बहुनृणां स्याद् वरो मान्यताभि
रत्यासत्या तदऽपरतया नाऽशुभः स्याच्च कोपि । एकोपि स्यात् खलु वरतरस्तत्त्वतस्तथ्यताभि
रेकश्चन्द्रः सकलभुवनं द्योतयेत् कि घनर्भः ॥ । लोगों के अत्यधिक गमनागमन से ही कोई संघ अच्छा नहीं होता और गमनागमन न होने से कोई बुरा नहीं हो जाता। तत्त्वदृष्टि से सत्ययुंक्त एक भी श्रेष्ठ होता है और सत्यशून्य अनेक भी अच्छे नहीं होते। आकाशं में चमकने वाला अकेला चांद ही समस्त भूमंडल को द्योर्तित कर देता है, असंख्य तारों से क्या !
१७८. अर्हच्छुद्धस्वगुरुसुपथे वर्तते तावदेव,
गण्यो मान्यः सुकृतिकृतिभिः सेवनीयो गुरुश्च । स्वच्छन्दत्वात्स्वयमपि गुरोरहतां त्यक्तमार्गः, सोऽभिष्टुत्यः कृतगुरुरपि स्वात्मकाल्याणिकः किम् ॥
(आचार्य जयमलजी ने कहा-भिक्षो ! गुरु तो गुरु ही रहेंगे। उनके प्रति अश्रद्धा उचित नहीं है।) तब भिक्षु बोले-धार्मिक एवं विवेकी पुरुषों द्वारा गुरु तब तक ही गणनीय हैं, माननीय और सेवनीय हैं जब तक वे अर्हत् मार्ग पर तथा सद्गुरुओं के पथ पर चलते हों। परंतु जो गुरु स्वच्छंदता से अर्हत् और सुगुरु के पथ का त्याग कर देते हैं, वे पूर्व में गुरु रूप में स्वीकृत होने पर भी, क्या आत्मकल्याण के लिप्सु मुनियों द्वारा पूजनीय हो सकते है ? १७९. नो मन्येरन् सुभगसमयान् वीतरागप्रणीतान्,
नो मन्येरन् क्रमगुरुवरस्वीकृतान् सद्विचारान् । नो मन्येरन् स्वकृतनियमानप्यहो ये हि तेषां, के विश्वासं विदधति पुनर्मन्वते केऽभिलापान् । १. भम्-तारा (नक्षत्रं....."भमुडु ग्रहः- अभि० २।२१)