Book Title: Bhikshu Mahakavyam
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 323
________________ नवम : सर्ग २९७ आर्य ! जो गुरु वीतराग द्वारा प्ररूपित. आगमिक नियमों को नहीं मानते, जो आचार्य परंपरा में होने वाले आचार्यों के सद्विचारों को नहीं मानते और जो न अपने स्वीकृत नियमों का ही सम्यक् पालन करते हैं तो कौन ऐसे गुरुओं पर विश्वास रखेगा और कौन उनकी वाणी को मानेगा? १८०. शैथिल्याप्तं न किमवहरनच्छेलकार्य च सन्तः, प्रोझाञ्चके किमु न विदितैः सद्भिरिंगालमर्दी। एवं तादृग मिलति विविधोदाहृतिर्यत्र तत्राऽस्माकं कि तच्छिथिलचरणाचार्यहारे विचारः॥ . आर्य ! आप सोचें, शिथिलता को प्राप्त शेलक राजऋषि को उनके शिष्यों ने छोड किया। इसी प्रकार इंगालमर्दन आचार्य को उनके सुशिष्यों ने छोड दिया। इस प्रकार के अनेक उदाहरण आगमों में यत्र-तत्र मिलते हैं। तो फिर हमें शिथिल आचार्य को छोड़ने में कैसा विचार और कैसी आपत्ति ? १८१. दोषः स्वल्पोऽपि च सुमुनिना लोकवृत्त्याऽऽदृतोऽयं, निःसन्देहं सुदृढमचिरान्नाशयेत् सर्वकार्यम् । राजीमात्रात् स्फुटति न किमम्भोधिकल्पस्तडाग ? एकाद् वाक्यात् सुकमलविभाचार्यको नाऽब्रुडत् किम् ?॥ लोकवृत्ति से मुनि द्वारा स्वीकृत छोटा-सा दोष भी निश्चित रूप से सुदृढ़ कार्य का भी शीघ्र ही सर्वनाश कर डालता है। समुद्रतुल्य विशाल. तालाब भी क्या एक छोटी-सी दरार से टूट नहीं जाता ? अर्हत् वाणी से विपरीत एक छोटी-सी प्ररूपणा ने क्या कमलप्रभ आचार्य को संसार सागर में नहीं डुबो डाला? १८२. दृष्टोपोद्यास्तदितरबहून् यत्समुद्घाटयन्तो, नरंकुश्यादुपकृतिमिषात् स्वीयगेहं दहानाः । वर्तन्ते ते तदपरपदीयं निशीथं सवृत्ति, नो मन्येरस्तदिह किमु वा छेदसूत्रादिभाष्यम् ॥ आगमों में बतलाए गए अपवादों को देखकर, उनसे भिन्न नानाप्रकार के अपवाद, अपनी निरंकुशबुद्धि और उपकार के बहाने, बना लेते हैं। क्या वे अपने घर को जला कर होली नहीं मना रहे हैं ? ऐसा करने वाले सवृत्ति निशीथसूत्र तथा छेदसूत्रों के भाष्य को क्यों नहीं स्वीकार करते ?

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