Book Title: Bhikshu Mahakavyam
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 314
________________ '२८८ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् व्यक्ति ने मार्ग में जाते मृगों को देखा। शिकारी ने पूछा-मृग किस ओर गए हैं ? वह जानता हुआ भी यह न कहे-मैं जानता हूं। वह 'शिकारी आगे चलकर उन मृगों को मारे या न मारे, किन्तु 'जानता हूं' ऐसा कहने वाला उनकी घात के पाप का भागी हो जाता है। यह बात आप्तोक्ति से प्रमाणित है। इसी प्रकार सभी विषय, बिना किसी अपवाद के, सुविज्ञों को समझ लेने चाहिए। १५१. एकस्यर्य इह वधकोऽन्तकानां स हन्ता, पूर्व सोऽभूत् त्रिविधविधिना सर्वसत्त्वाभिरक्षी। आसीत् सोऽद्याऽविरतिसहितः कृत्स्नजीवाभिघाती, तादृक्षस्य प्रविरचयिता साधुसंहारकोऽतः ॥ एक मुनि की हत्या करने वाला अनन्त जीवों की हत्या करने वाला होता है, क्योंकि मुनि तीन करण और तीन योग से सभी प्राणियों के घात से विरत होता है। और मारे जाने के पश्चात् वह अविरत का सेवन करने वाला तथा समस्त जीवों का घातक हो जाता है। अतः साधु को मारने वाला परंपरकारण के आधार पर अनन्त जीवों का संहर्ता हो जाता है। १५२. साघस्त्यागः कथमपि न तत्प्रोत्तरं सूत्रकृद्भ्य स्तत्रोल्लेखो जिनभगवतां ये प्रशंसन्ति दानम् । ते हीच्छन्ति स्फुटतरवधं प्राणिनां तनिषेधाद्, वृत्तिच्छेदं त्वविबुधनराः कुर्वते वर्तमाने ॥ कहते हैं कि दान सावध , होता ही नहीं तो फिर सूत्रकृतांग सूत्र में जिनेश्वरदेव का ऐसा उल्लेख क्यों है कि जो दान की प्रशंसा करते हैं, वे स्पष्ट रूप से प्राणियों के घात की वांछा करते हैं और जो दान देते समय वर्तमान में उस दान का निषेध करते हैं तो वे अबुधजन याचकों की वृत्ति-आजीविका का विच्छेद करते हैं। (क्या इस कथन की ध्वनि सावध दान की नहीं है ?) १५३. तस्माच्छास्त्राभ्यसनकुशलाः साम्प्रतं पृच्छकानां, नो भाषन्ते द्विविधमपि तच्चास्ति नास्तिोति पुण्यम् । निर्वाणं ते विधुतरजसःप्राप्नुवन्तीतिमानात्, सावधं तत् तदिव करुणा बोधनीया विवेकः ॥

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