Book Title: Bhikshu Mahakavyam
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 313
________________ नवमः सर्गः २६७ पारंपर्य की अपेक्षा से भी साध्य और साधन एक दूसरे के सदृश होने चाहिए। विपरीत होने पर अति-प्रसंग उपस्थित हो जाएगा। सावध हेतु का प्रयोग चाहना ही पाप है तो फिर सावद्य प्रवृत्ति की तो बात ही क्या ? शास्त्रों के विरुद्ध कभी भी, किसी तथ्य की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उससे स्वयं का चारों ओर से पतन होता है तथा अर्हद् की आशातना भी होती है। (दीक्षा का पारंपर्य कारण है विवाह और संतानोत्पत्ति। यह किसी भी अवस्था में निरवद्य नहीं मानी जा सकती। पारंपर्य कारणों-निमित्त कारणों की लंबी शृंखला चलती है। मूल कारण एक होता है और दीक्षा में वह कारण है-चारित्र मोहनीय का क्षयोपशमभाव ।) १४८. आत्मानन्दाध्यवसिति'मृते सर्वभावा हि मोह स्तत्पूर्वा या कृतिरपि सदाऽऽदीनवोद्भाविनी' सा। या दोषाविष्करणकरणी सा नितान्तं कदापि, नो स्वीकार्या कथमपि जनैः किं पुनः संयतानाम् ॥ सर्वज्ञ की आज्ञा के बाहिर प्रवृत्त होने वाले सभी अध्यवसाय मोहमय हैं। उन अध्यवसायों के आधार पर की जाने वाली प्रवृत्ति भी दोषपूर्ण है, सावध है । जो दोषपूर्ण है, सावद्य है, उसको (निरवद्य मानकर) स्वीकार कभी नहीं करना चाहिए, फिर संयमी व्यक्तियों के लिए तो वे सर्वथा त्याज्य ही हैं। १४९. रागो ह्यर्थादविरतिवतां सातमात्रानुयोगे ऽनाचीर्णस्तत्कथमिव तदा रक्षणे पुण्यधर्मः। सावद्यानां स्तवनमवनं तत् त्रिकालांहसां हि, भागीकर्तुं प्रभवतितरां शेमुषोभिश्च शोच्यम् ॥ असंयत जीवों के शारीरिक सुख-साता के प्रश्न को अनाचार एवं राग माना है तो फिर उनके रक्षण में पुण्यधर्म कैसे होगा ? सावध कार्यों की प्रशंसा और उनका आसेवन उनसे संबंधित त्रिकालवर्ती पाप का ही भागी बनाने वाला होता है । आर्य ! यह बुद्धि से सोचने-विचारने जैसा हो। १५०. एणान् हिंस्रं सुपथि यदि सम्पृच्छमाणं च जानन्, जानामीति प्रतिवचनतो मारयेद् वा न वाऽपि । घातस्पृष्टस्तदपि वदिता नूनमाप्तोक्तिमानरेवं बोध्या निखिलविषया निविशेषात् सुविज्ञैः ॥ १. आत्मानन्दाध्यवसिति:-सर्वज्ञ आज्ञा । २. आदीनवः-दोष, पाप (दोषे त्वादीनवानवौ-अभि० ६।११)।

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