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नवमः सर्गः
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१२९. क्वार्हवाणी क्व विमलदया क्वास्ति निष्पापधर्मः,
क्वैकान्तीदृङ चरणकरणे क्वासिधाराव्रतानि। क्व क्षान्त्यादिप्रवरदशनिर्ग्रन्थधर्मः समर्मः,
संवीक्ष्यं क्व प्रवचनलसन्मातरोऽष्टौ विशुद्धाः ॥ १३०. साध्वाचारे वयमनिविडा नष्टतत्त्वा नितान्तं,
पश्यन्तोप्याचरणकरणे संवृताक्षा विपक्षाः । स्वच्छन्दत्वं स्फुरति सुतरां शिक्षिता कोऽनुमन्ता, सूत्रादेशादुपरतिमिता भ्रष्टलक्ष्या विलोक्यम् ॥
(त्रिभिविशेषकम्) उस समय मुनि भिक्षु के चाचा गुरु मुनि जयमलजी एक भिन्न टोले--मुनि संघ के आचार्य थे । वे सहज और सरल थे । वे भिक्षु से मिले। तब समस्त विश्व के उपकारी, संसारस्थ भव्य प्राणियों के भाग्य रूपी कमल को विकसित करने वाले सूर्य सम श्रीमद् भिक्षु जयमल मुनि को प्रतिबोध देने के लिए विधिपूर्वक बोले
मुनिवर्य ! आज धर्मसंघ में कहां है अर्हद् वाणी ? कहां है निरवद्य दया ? कहां है निरवद्य धर्म ? कहां है चरण-करण की साधना की एकतानता ? कहां है असिधारा के समान कठिन महाव्रतों की परिपालना ? कहां है मार्मिक क्षान्ति आदि दस प्रकार का मुनिधर्म ? कहां है प्रवचन में शोभित आठ प्रवचनमाताओं की विशुद्धि ?' . .
_ 'साध्वाचार में भी हम शिथिल हो गए हैं, तत्त्वच्युत हो गए हैं। हम आचार-क्रिया को जानते हुए भी नितांत आंखें मूंदकर विपरीत आचरण कर रहे हैं । स्वच्छंदता निरंतर बढ रही है। कोई कहने वाला और मानने वाला नहीं है। मुनि सूत्रों के आदेशों के प्रति उदासीन-से हो रहे हैं । हम अपने लक्ष्य से च्युत हो गए । आप यह भी ध्यानपूर्वक सोचें ।'
१३१. षट्कायानां त्रिकरणयुजाऽऽरम्भसंरम्भनादौ,
हिंसातत्त्वाज्जिनवचनतो बाह्यवृत्या च सा स्यात् । तत्रादेशोपदिशनतया किं भवेत्पुण्यधर्मो, मिश्रश्रेयोऽपि च किमु तथा चिन्तनीयं भवद्भिः॥
तीन करण और तीन योग से षट्कायिक जीवों के आरंभ-समारंभ में हिंसा होती है । इसे तत्त्वदृष्टि से अथवा जिनेश्वरदेव के वचनों से अथवा बाह्य वृत्ति देखें तो भी वह हिंसा ही रहेगी। क्या उस हिंसायुक्त प्रवृत्ति का आदेश या उपदेश देने में पुण्य धर्म या मिश्रधर्म हो सकता है ? आप इस पर विचार करें।