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, नवमः सर्गः
१००. तुर्यारे प्राक् सविधिशपथस्वीकृतिः पालनाऽऽसीत्,
तद्वदस्मिन्नपि सकुशलं दुःषमारेऽपि शक्या। कालव्याजाद् व्रत शिथिलतापोषणा नैव कार्या, स्वानाचीर्णाङ्गसुखसुविधादुर्बलत्वादि हेयम् ॥
चौथे आरे में जैसे विधिपूर्वक नियम लिया जाता और उसी विधि से उसका पालन किया जाता, उसी प्रकार आज इस पांचवें आरे में भी नियमों का पालन शक्य है। काल का बहाना लेकर व्रतों के पालन में शिथिलता का पोषण नहीं करना चाहिए। तथा अपने द्वारा आचीर्ण दोषों, शारीरिक सुख-सुविधाओं तथा मानसिक दुर्बलताओं को छोड देना चाहिए।
१०१. निन्धं हेयं चरणशिथिलत्वं यथारे चतुर्थे
ऽनेहस्यस्मिन्नपि तदिव तद्विप्रियं वर्जनीयम् । स्वासामर्थ्यादभिलषणतः कि परावर्त्ततेऽद्य, खण्डं खण्डं कथमिवभवेत्पञ्चकोरुवतानाम् ॥ ___ जैसे चौथे आरे में चारित्र की शिथिलता हेय और निंद्य मान जाती थी, वैसे ही आज वर्तमान में भी वह निन्दनीय और वर्जनीय है। क्या आज उसके पालन की अपनी असमर्थता तथा इच्छा से उसमें परिवर्तन किया जा सकता है ? पांच महाव्रतों का 'क्या आज खंड-खंड में पालन किया जा सकता है ?
१०२. तुर्यारेऽपि त्रिचतुरशनत्यागतो भूयमान- . ..
मासीच्चार्वष्टममिह तपोऽद्यापि किं तत्तथा न । . ज्ञेयं ज्ञेयं चणककणिकामात्रमास्वाद्यकोऽपि, तत् किं कर्तुं प्रभवति नरः पञ्चमारादिदानीम् ॥
चौथे आरे में जैसे तीन दिन तक तीन या चार आहार का त्याग करने से ही तेले की तपस्या होती थी और आज भी क्या वह वैसे ही नहीं होती है ? क्या आज इस पांचवें आरे में कोई व्यक्ति चने का एक दाना खाकर तेले की तपस्या कर सकता है ? आप गहराई से सोचें। . १०३. नो चेत्तत्तद्विदितबहुधादोषसंसेवनाभिः, , , , , , .
श्रामण्यं स्यात् किमिव वदतामागमोक्त्यात्र सत्यम् । तस्माद, धृत्वा शिरसि सुतरामाह ती शिष्टिमिष्टां,,. प्राणोत्सर्गादपि सुमुनितामारिरात्सुर्मुदाऽद्य ॥ .