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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
प्राणियों को सत्य श्रद्धा की उपलब्धि अत्यंत दुर्लभ है । जिनेश्वर देव के धर्म के बिना कल्याण नहीं हो सकता । गुरुदेव ! आग्रह दुष्टग्रह की भांति त्याज्य है । आप इसे छोड़ें और जो आचरणीय है उस वीतराग मत का आचरण करें ।
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५४. सौत्रों वात गुरुवर ! मुदा मन्यतां मन्यतां नः, को निर्बन्धो भवति महतां त्वादृशां सत्यसन्धौ । स्पष्टं स्पष्टं कथनमनघं मानसं मानयुक्तं, ध्यानं ध्येयं सुधृतिमतिभिः श्रीमताऽस्यां मदुक्तौ ॥
गुरुवर्य ! आप हमारी इस आगमोक्त बात को मानें, विमर्श करें । आप जैसे आचार्यों के लिए सत्य-संधान में कैसा आग्रह ! मैंने अपने मन की पवित्र भावना को स्पष्ट रूप से आपके समक्ष रखा है । आप मेरी इस बात पर धैर्य और मननपूर्वक ध्यान दें ।
५५. किन्त्वेतस्मस्तनुरपि तदा नाऽपतत् तत्प्रभावो, मौद्गे शेले किमभितनुते पुष्करावर्त्तमेघः । आस्तां दूरे तदनुसमता प्रत्युत क्रोधवह्निः, प्रादुर्भूतो भृकुटिभयदो दुनिवार्यो विकार्यः ॥
किन्तु मुनि भिक्षु की बात का आचार्य पर तनिक भी असर नहीं हुआ । पुष्करावर्त मेघ का मुद्गशैल पर क्या प्रभाव हो सकता है ? मुनि भिक्षु की प्रार्थना से आचार्यश्री में समता का प्रादुर्भाव होना चाहिए था, परन्तु उनकी क्रोधाग्नि भडक उठी और भृकुटी भयंकर रूप से तन गई विकृति का निवारण दुःसाध्य होता है ।
५६. कोपाक्रान्तो रघुरघुगुरुर्भाषते भिक्षुशिष्यं,
द्वाक्यानां दृढतरधिया प्रत्ययो रक्षणीयः । प्रत्याचष्टे कथमखिलवित् सत्कृतान्तातिगानां, तेषां श्रद्धा भवति भविनां रक्षणीया शुभाय ॥
आचार्य रघुनाथजी क्रोधाविष्ट होकर अपने शिष्य भिक्षु से बोले -. 'मेरे वचनों पर दृढता के साथ विश्वास रखना चाहिए ।' मुनि भिक्षु बोले'आर्य ! सर्वज्ञ के सिद्धान्तों का अतिक्रमण करने वालों के वचनों पर श्रद्धा रखने से वह प्राणियों के आत्मकल्याण के लिए कैसे सार्थक हो सकती है ? '