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नवमः सर्गः
१५. योगाः सर्वे करणपदतां कर्मणां संभजन्ते, सांहोऽनंहो द्विविधमिह वा कार्य मेवास्ति तस्मात् । यादृक्कार्याश्रयण सहितास्तादृशा एव योगाः, कार्याभेदैस्तदिव समला निर्मला वा भवेयुः ॥
'सभी योग (तीनों योग) कार्य की निष्पत्ति में कार्य दो ही प्रकार का है- - सावद्य अथवा निरवद्य । ही योग होंगे और जैसे योग होंगे वैसे ही कार्य होंगे । सावद्यता, निरवद्यता फलित होती है ।' (तात्पर्यार्थ में तथा योग से कार्य अभिन्न होते हैं ।)
१६. आज्ञामुख्यं जिनमतमतः कार्यमात्रं च यद्यदाज्ञाबाह्यं भवति समलं निर्मलं तत् प्रविष्टम् । नान्यो भेदः स्फुरति समये क्वापि तत्त्वार्थदृष्ट्या, तस्मादाज्ञा जिनभगवतां सर्वथाऽऽराधनीया ॥
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साधनरूप होते हैं । जैसे कार्य होंगे वैसे
इन्हीं के आधार पर कार्य से योग अभिन्न
'जैनशासन में आज्ञा का ही सर्वोपरि महत्त्व है । जो-जो कार्य आज्ञा से बाहर हैं वे सावद्य और जो आज्ञा में हैं वे निरवद्य हैं । तत्त्वार्थ की दृष्टि से इन दो विकल्पों के अतिरिक्त तीसरा विकल्प आप्तवाणी में प्राप्त नहीं है । इसलिए जिनेश्वर देव की आज्ञा की अखंड आराधना करनी चाहिए ।'
१७. बध्नात्येषोऽध्यवसितिवशादेकदा पुण्यमात्मा,
पापं वा त्समयवचनैर्ज्ञायते स्पष्टमस्मात् ।
एको योगो भवति युगपद् योऽशुभो वा शुभो वा, नान्यस्तत्त्वैः क्वचिदपि भवेन् मिश्रयोगो नियोगः ॥
१८. बाह्याभासः क्वचिदपि लगेद् यौगपद्यं तयोर्यत्, तत् कालस्यातिशयतनुताभिर्भ्रमो योऽत्र किन्तु । 'गोलाकारोल्मुककृतचमत्कारवत् सम्भ्रमैर्वाऽलक्ष्यः सार्द्धं कजशतदलोद्भेदवत् सत्क्रमोऽपि ॥ १. नियोगः - विधि, आज्ञा ।
आत्मा अपने अध्यवसायों के आधार पर कभी पुण्य का बन्ध करती है और कभी पाप का । भगवद्वाणी के आधार पर यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि एक साथ एक ही योग होता है— शुभ अथवा अशुभ, दूसरा नहीं । कहीं भी मिश्रयोग अर्थात् शुभ-अशुभ दोनों साथ होने की विधि ( आज्ञा ) नहीं है ।