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भिक्ष महाकाव्यम्
दयाहीन हृदय वाले व्यक्ति एक इन्द्रिय वाले प्राणियों को मार कर पांच इन्द्रिय वाले जीवों का पोषण करते हैं। वे भावशुद्धि की अपेक्षा से धर्म और हिंसा की अपेक्षा से पाप मानते हैं, मिश्र धर्म मानते हैं । मन्दिरों में की जाने वाली द्रव्य-पूजा, गंगा-स्नान, मंदिर-निर्माण आदि प्रवृत्तियों में भावशुद्धि की समानता है। उस अपेक्षा से धर्म और हिंसा की अपेक्षा से पाप मानना चाहिए । परंतु हम ऐसा नहीं मानते ।
२६. क्ष्वेडास्वादः कथमिव भवेज्जीवनोत्सर्पणत्वं,
वयु त्पातैः कथमिव भवेत् पुण्डरीकप्रसूतिः। सूर्यास्तत्वात् कथमिव भवेद्वासराभिप्रसारो, हिसाबैस्तः कथमिवभवेज्जैनधर्मप्रचारः॥
विष के आस्वादन से जीवन का उपबृंहण कैसे हो सकता है ? अग्नि के उत्पात से कमल की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? सूर्य के अस्तंगत हो जाने पर दिन का प्रसार कैसे हो सकता है ? इसी प्रकार उन हिंसात्मक प्रवृत्तियों से जिनेश्वर देव का धर्म-प्रचार कैसे हो सकता है ?
२७. मिश्रश्रद्धाकथनविधिना प्रत्युतातीवदीन
निर्बाथानामवनमिषतः कारयेत्तद्विनाशम् । . मौनादेशाद्यदिह यदि वा तत्र पुण्योपदेशाद, व्यापाद्यन्ते त्व विषयि मुखास्ते वराका विपाकाः ॥
मिश्र धर्म की मान्यता का कथन वास्तव में अत्यन्त दीन और अनाथ प्राणियों की रक्षा के मिष से उनका विनाश ही करता है। (मिश्र धर्म की फलश्रुति के विषय में पूछने पर) मुनि मौन रहकर उसका समर्थन करते हैं अथवा पुण्य बताते हैं। क्या ऐसा करने पर उन बेचारे एकेन्द्रिय आदि प्राणियों की हिंसा नहीं की जाती ?
२८. हिंसाद्युत्कान् हितमुपदिशेत्तन्निरर्थे च मौनं,
मौने व्यर्थे व्रजति विजनेऽसौ क्रमः शास्त्रसिद्धः । एवं त्रैधा समुचिततया स्वात्मसंरक्षकाः स्युः, शक्ये साध्ये खलु प्रथमतः किञ्च मौनेन साघे ॥
१. त्वम्-एक (त्वमेकमितरच्च तत्-अभि० ६।१०४) । २. विषयिन्-इन्द्रिय (विषयीन्द्रियम्-अभि० ६।१९) ।