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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ६. अलङ कृतं यद् गुरुभिः स्वगौरवैः, प्रसिद्धमाद्यन्मरुमण्डलान्तरे। शुभं पुरं सोजतसंज्ञकं प्रति, प्रतस्थिरे ते किल सत्यमूर्तयः ॥
उस समय गुरु रघुनाथजी प्रसिद्ध मरुधर देश के अन्तर्गत सोजत शहर को अपने गौरव से अलंकृत कर रहे थे, वहां विराज रहे थे। मुनि भिक्षु ने जब उस ओर प्रस्थान किया तब ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो सत्य की पांच मूर्तियां प्रस्थान कर रही हों।
७. पथे लघून ग्रामगणान् निरीक्ष्य स, दलद्वयं निर्मितवान् विचक्षणः । द्वितीयपक्षेश्वरवीरभाणजी, प्रशासितुं साधुगिरोपचक्रमे ॥
राजनगर से सोजत के मार्ग में अनेक छोटे-छोटे गांव आते थे। पांच मुनियों का उन छोटे गांवों में एक साथ रहना कठिन जानकर विचक्षण मुनि भिक्षु ने साधुओं के दो दल बना दिए। दूसरे दल के अग्रगामी थे मुनि वीरभाणजी। मुनि भिक्षु ने संयतवाणी में उन्हें कहा
८. पुरा श्रयेच्चेद् गुरुपादसग्निधि, तदा न चयॊ विषयो ह्यसौ मनाम् । गभीरिमौदारिमधीरिमादिभिः, पचेलिमत्वं प्रविरच्यतां ततः ॥
९. यतो हि पूर्व श्रुतिगोचरान्तरं, विधाय पक्षग्रहिलः कदाचन । __ भवेन् मनश्चेत् खचितं च तस्य वा, तदा गुरुर्बोधयितुं सुदुर्लभः ॥
१०. असावसाने तु गुरुनिजो गुरुर्मनोभिकृष्टो न ततः सुबोधभाक् ।
कृतं विनष्टं न हि सुद्धतं भवेत्, ततो वरा प्राग् वचने नियन्त्रणा ॥
११. कलाकलापविनयाभिलापकैरहं लपित्वा हृदि तस्य तात्त्विकीम् । रुचि निवेश्योत्तमयुक्तियोगतो निनीषुरार्हन्त्यपथं गुरुं निजम् ॥
(चतुभिः कुलकम्) 'हे वीरभाण ! यदि तुम गुरुचरणों में पहले पहुंच जाओ तो गुरु के समक्ष इस विषय की चर्चा कभी मत करना। इस विषय को गंभीरता, उदारता और धीरता से पचा लेना। क्योंकि इस विषय को पहले सुनकर किसी पक्ष के कारण गुरुदेव का मन तन जाए तो फिर उनको समझाना दुष्कर होगा।' ....अन्तत:तो वे अपने गुरु हैं। यदि उनका मन तन जाएगा तो फिर समझाना कठिन हो जाएगा। एक बार बिगड़ा हुआ कार्य फिर सुधर नहीं सकता । इसलिए पहले वाणी पर नियंत्रण रखना ही अच्छा रहेगा। मैं वहां